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________________ ३/धर्म और सिद्धान्त : १३५ जैन संस्कृतिमें जीवकी उच्च-नीच आचार-प्रवृत्तियोंके आधारपर ही उसमें (जीवमें) उच्च-नीच व्यवहार माननेका मुख्य कारण यह है कि वहाँपर (जैन संस्कृतिमें) उच्च और नीच सभी प्रकारके कुलोंकी व्यवस्था भी उस-उस प्रकारके उच्च और नीच आचारके आधारपर ही स्वीकार की गयी है । जैसे-चमारके कुलमें उन्पन्न होनेवाला व्यक्ति चमार तो कहलाता है परन्तु वह कुल, जो चमार कहलाता है, उसका मूलकारण यही है कि उस कुलमें चमड़े का कार्य किया जाता है। इसीप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों तथा सुनार, लुहार, बढ़ई, कुम्हार आदि जातियों (जो कुलके ही नामान्तर है) के नामकरण भी मनुष्योंके उसउस प्रकारके आचारके आधारपर ही स्वीकार किये गये हैं। लोकमें उक्त सभी प्रकारके आचारोंमेंसे जिस-जिस आचारको उच्च माना गया है उसके आधारपर उस कुलको उच्च और जिस-जिस आचारको नीच माना गया है उसके आधारपर उस-उस कुलको नीच मान लिया गया है। यद्यपि देशविशेष, प्रान्तविशेष, व्यक्तिविशेष आदि दूसरे विविधप्रकारके आधारोंपर भी जातियोंका निर्माण हुआ है । परन्तु जीवोंकी उच्चता और नीचताके व्यवहारमें इनका कुछ भी उपयोग नहीं होता। इसी प्रकार जैन, बौद्ध, वैष्णव, आर्यसमाज, मुसलमान, ईसाई आदि जातियोंका निर्माण उस-उस संस्कृतिकी मान्यताके आधारपर हुआ है । लेकिन इनको भी जीवोंको उच्चता और नीचताका द्योतक नहीं माना जा सकता है। प्रायः लोगोंका ख्याल है कि धर्माचरण उच्चताका और अधर्माचरण नीचताका व्यवहार करानेमें कारण है परन्तु उनकी यह धारणा बिल्कुल गलत है, कारण कि लोकव्यवहारमें यह भी देखा जाता है कि अधर्माचरण करनेवाला ब्राह्मण उच्चगोत्री माना जाता है और धर्माचरण करनेवाला शूद्र नीचगोत्री ही माना जाता है । जैन संस्कृतिमें भी मिथ्यादृष्टि जीवोंको भी उच्चगोत्री और देशविरत (पंचम गुणस्थानवर्ती) जीवोंको भी नीचगोत्री स्वीकर किया गया है । इस तरह यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक जीवके कुलपरंपरागत जीवन-संरक्षणके लिये किये जानेवाले प्रयत्नोंकी उच्चता और नीचताके आधारपर ही उनमें उच्चता और नीचताका व्यवहार करना उचित है। "संतानकमेणागयजीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्चं णीचं चरणं उच्च णीचं हवे गोदं ।"-(गोम्मटसारकर्मकाण्ड)। यह गाथा भी हमें यही उपदेश देती है कि जीवों द्वारा अपने जीवनसंरक्षण (जीविका)के लिये अपनाया गया जो कुलपरम्परागत पेशा है वही गोत्र है। वह गोत्र (पेशा) उच्च और नीच दो प्रकारका है । गाथामें गोत्रसम्बन्धी यह वर्णन वास्तवमें मनुष्यजातिको लक्ष्यमें रखकर किया गया है। फिर भी इतना तो निश्चित समझना चाहिये कि गाथाके "जीवाचरण" शब्दका अर्थ जीविका (जोववृत्ति) ही है। इस तरह नारकजातिके जोवोंमें या तो जीवनवृत्तिका सर्वथा अभाव है अथवा उनको जीववत्ति कष्टमय है. इस तरह नारकियोंकी जीवनवृत्तिमें नीचताका व्यवहार उपयुक्त होनेके कारण सभी नारकी जीव नीचगोत्री माने गये हैं । तिर्यग्गतिके जीवोंकी जीवनवृत्ति क्रूरता और दीनताको लिये हुए कष्टमय होनेके कारण नीच है. अतः सभी तिर्यंच भी नीचगोत्री माने गये हैं। देवोंकी वृत्तिको सात्विकवृत्ति कहा जा सकता है, अतः सभी देव उच्चगोत्री मान लिये गये हैं। मानववर्गको चार भागोंमें विभक्त किया गया है। उनमेंसे ब्राह्मणोंकी वत्तिको सात्विक तथा क्षत्रियों और वैश्योंकी वृत्तिको राजस माना गया है। ये दोनों प्रकारको वृत्तियाँ लोकमें उच्च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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