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________________ ... ३/धर्म और सिवान्त : ११९ योगके आधारपर होता है। गोम्मटसार कर्मकाण्डमें जो "बहुभागे समभागो" इत्यादि गाथा १९५ पायी जाती है उसका आशय यही ग्रहण करना चाहिए कि योगके आधारपर एक साथ कर्मबर्गणाओंका जो आस्रव होता है वह आस्रव सबसे अधिक वेदनीयकर्मकी वर्गणाओंका होता है, उससे कम मोहनीयकर्मकी वर्गणाओंका होता है, उससे कम ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मको वर्गणाओंका होता है, उससे कम नाम और गोत्र कर्मकी वर्गणाओंका होता है और उससे कम आयकर्मकी वर्गणाओंका होता है। . . .. ___ चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाओंके विषयमें यह भी ज्ञातव्य है कि एक आयुकर्मकी वर्गणाओंके आस्रवके अवसरपर अन्य तीनों आयकर्मोंकी वर्गणाओंका आस्रव नहीं होता, क्योंकि चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाओंके आस्रवके लिए परस्पर विरुद्ध योग कारण होता है । फलतः जिस समय अनुकूल योगके आधारपर किसी एक आयुकर्मकी वर्गणाओंका आस्रव होता है उस समय अनुकुल योगका अभाव रहनेके कारण अन्य तीन आयकर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव नहीं होता है। इसी प्रकार चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाओंके विषयमें यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार अन्य सात कर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव अनुकूल योगके सद्भावमें प्रतिसमय होता है उस प्रकार चारों आयुकर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव अनुकूल योगका अभाव रहनेके कारण प्रतिसमय न होकर कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च जीवोंकी भुज्यमान आयुका त्रिभाग शेष रहनेपर व भोगभूमिज मनुष्य और तिर्यञ्च जीवोंकी भुज्यमान आयुका ९ माह शेष रहनेपर एवं देव और नारकीय जीवोंकी भुज्यमान आयुका छहमाह शेष रहनेपर ही होता है और तब भी अनुकूल योगका सद्भाव हो तो ही होता है अन्यथा नहीं। यहाँ सर्वत्र योगकी अनुकूलताका आधार अन्य अनुकूल निमित्त सामग्रीके समागमको ही समझना चाहिए। सभी कर्मोंकी वर्गणाओंके आस्रवमें कारणभूत व आत्माकी क्रियावती शक्तिके परिणमन स्वरूप उक्त योग यद्यपि यथाप्राप्त क्रियाशील पौदगलिक मन, वचन और कायके अवलम्बनपूर्वक होता है, परन्तु उस योगके साथ जबतक चारित्रमोहनीयकर्मके उदयके सद्भावमें यथायोग्य नोकर्मभूत निमित्तोंके सहयोगसे आत्माको भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप रागद्वेष होते रहते हैं तब तक आत्माके साथ सम्पर्कको प्राप्त सभी कर्मवर्गणाओंके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध भी नियमसे होते रहते हैं।। कर्मरूप परिणत वर्गणाओंका आत्माके साथ यथासम्भव अन्तर्महर्तसे लेकर यथायोग्य समय तक सम्पर्क बना रहना स्थितिबन्ध है और उनमें आत्माको फल प्रदान करनेकी शक्तिका प्रादुर्भाव होना अनुभागबन्ध है। इससे निर्णीत होता है कि कर्मवर्गणाओंका आत्माके साथ सम्पर्क होना अन्य बात है और उस सम्पर्कका किसी नियतकाल तक बना रहना अन्य बात है। उपर्युक्त विवेचनके अनुसार मैं यह कहना चाहता हूँ कि ११, १२वें और १३वें गुणस्थानोंमें विद्यमान जीवोंके साथ जिस योगके आधारपर सातावेदनीयकर्मकी बर्गणाओंके प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध होते हैं इसी योग के आधारपर श्री १०८ आचार्य विद्यासागरजी महाराजकी अकिंचित्कर पुस्तकके पृ० ७-८ पर उन । जीवोंके साथ उसी सातावेदनीयकर्मकी उन वर्गणाओंके जो स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध बतलाये गये हैं व समर्थनमें तर्क और आगम वचन प्रस्तुत किये गये हैं यह सब मुझे सम्यक् प्रतीत नहीं होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--- १. पूर्वमें किये गये संकेत के अनुसार जब जिस योगके आधारपर ज्ञानावरणादि कर्मोकी वर्गणाओंका आस्रव होता है उसी योगके आधारपर तब उन वर्गणाओंका आत्माके साथ सम्पर्क भी होता हैं एवं वे वर्गणायें उस सम्पर्कके निमित्तसे ही ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणत होती है । फलतः यह सब विषय प्रकृतिबन्धकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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