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________________ ११८ : सरस्वती - वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ कर्मबन्धका मूल कारण जीव और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें स्वभावतः भाववतीशक्ति के साथ क्रियावतीशक्ति भी पायी जाती है । उस क्रियावतीशक्तिके आधारपर ही जीव और पुद्गल दोनों द्रव्योंमें हलन चलन क्रिया होती है । संसारी जीवोंमें क्रियाशील पौद्गलिक मन या वचन या कायके अवलम्बनसे जो हलन चलन क्रिया होती है उसे ही योग कहते हैं और वह योग ही कर्मबन्धका मूल कारण है । उसका सद्भाव जीवोंमें प्रथमगुणस्थान से लेकर १३ वे गुणस्थानतक पाया जाता है, इसलिए उनमें विद्यमान जीवोंमें नियमसे प्रतिक्षण कर्मबन्ध होता रहता . है । यतः १४वें गुणस्थानवर्ती जीव में पौद्गलित मन, वचन और कायका सद्भाव रहते हुए भी उनके निष्क्रिय हो जानेसे योगका अभाव रहता है अतः वहाँ कर्मबन्ध नहीं होता । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानमें जीवके जो आयुकर्मका बन्ध नहीं होता उसका कारण वहाँ योगकी अनुकूलताका अभाव है। तथा आदिके तीन गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृतिका व आदिके छह गुणस्थानों में आहारकशरीर और आहारकअङ्गोपांगका जो बन्ध जीवके नहीं होता है उसका कारण वहाँ भी योगकी अनुकूलताका अभाव है। इसी प्रकार नीचे-नीचेके गुणस्थानों में बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंकी ऊपर-ऊपरके गुणस्थानोंमें जो बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है उसका कारण भी वहाँ योगकी तरतमताको ही माना जा सकता है । कर्मबन्धके विषय में यह भी ज्ञातव्य है कि आगममें बन्धके चार भेद बतलाये गये हैं- प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध । आगममें यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगके आधारपर होते हैं व स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध कषायोंके आधारपर होते हैं । तात्पर्य यह है कि योगके आधारपर ज्ञानावरणादि कर्मवर्गणाओंका आस्रव होता है और उस आस्रवके आधारपर उन वर्गणाओंका आत्माके साथ जो सम्पर्क होता है उसका नाम प्रकृतिबन्ध है तथा वे कर्मबर्गणाएँ कितने-कितने परिमाणमें आत्मा के साथ सम्पर्क करती हैं उसका नाम प्रदेशबन्ध हैं । फलत: प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध दोनोंको योगके आधार पर मान्य करना युक्त है। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या ज्ञानावरणादि कर्मोकी प्रकृतिका निर्माण योगके आधारपर होता है ? तो ऐसा नहीं है, क्योंकि योगका कार्य ज्ञानावरणादि कर्मवर्गणाओंका आस्रवपूर्वक आत्माके साथ सम्पर्क कराना मात्र ही है अतएव यह स्वीकार करना होगा कि कर्मबर्गणाओंका जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमन होता है वह उन वर्गणाओं में विद्यमान उस उस कर्मरूप परिणत होनेकी स्वाभाविक द्रव्यभूत योग्यताके आधारपर होता है। इतनी बात अवश्य है कि वे वर्गणाएँ तभी ज्ञानावरणादिकर्मरूप परिणत होती हैं जब वे योगके आधार - पर आस्रवित होकर आत्माके साथ सम्पर्क करती हैं। इससे निर्णीत होता है कि ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वर्गणाएँ पृथक्-पृथक् ही लोकमें व्याप्त हो रही हैं तथा योगके आधारपर उनका आस्रव होकर आत्मा के साथ जो सम्पर्क होता है उसे ही प्रकृतिबन्ध कहना चाहिए। ज्ञानावरणादि आठों कर्मोंकी वर्गणाओंके पृथक्-पृथक् होनेके कारण ही वे आठों कर्म कभी एक-दूसरे कर्मरूप परिणत नहीं होते हैं । इसीप्रकार दर्शनमोहनीयकर्म चारित्रमोहनीयकर्मरूप और चारित्रमोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय कर्मरूप कभी परिणत नहीं होते एवं चारों आयुकर्म भी कभी एक- दूसरे आयुकर्मरूप परिणत नहीं होते। इससे भी निर्णीत होता है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों कर्मोंकी एवं चारों आयुकर्मोंकी वर्गणाएँ लोकमें पृथक्पृथक् ही विद्यमान हैं । तथा उनका योगके आधारपर आस्रव होकर आत्माके साथ जो सम्पर्क होता है वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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