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________________ जैनागम में कर्मबन्ध गुणस्थानोंकी व्यवस्था गोम्मटसार जीवकण्डकी गाथा तीनमें गुणस्थानोंकी व्यवस्था मोह और योगके आधारपर बतलाई गई हैं । इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है आगममें संसारी जीवोंके १४ गुणस्थान निश्चित किये गये हैं- मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मलोभ, उपशान्तमोह, क्षोणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली । इनका निर्धारण जीवमें मोहनीकर्मकी यथायोग्य प्रकृत्तियोंके उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशम और योगके सद्भाव और अभावके आधारपर होता है । मोहनीय कर्मके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके रूपमें दो भेद हैं । उनमें दर्शनमोहनीय कर्मके मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृतिके रूपमें तीन भेद हैं । चारित्रमोहनीयकर्मके कषायवेदनीय और अकषायवेदनीयके रूपमें दो भेद हैं । कषायवेदनीय कर्म के मूलतः क्रोध, मान, माया और लोभ के रूपमें चार भेद हैं तथा ये चारों अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलनके रूपमें चारचार प्रकारके हैं । फलतः कषायवेदनीयकर्मके १६ भेद हो जाते हैं । अकषायवेदनीयकर्मके हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके रूपमें ९ भेद हैं । गुणस्थानोंकी चतुर्दश संख्याके निर्धारण में दर्शनमोहनीय कर्मकी उक्त तीन और कषाय वेदनीयकर्मकी १६ प्रकृतियोंका ही उपयोग है, अकषायवेदनीयकर्मकी ९ प्रकृतियोंका गुणस्थानोंकी चतुर्दश संख्याके निर्धारण में उपयोग नहीं है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है दर्शन मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है । जिस समय सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम गुणस्थानकी ओर आता है उस समय मिथ्यात्वकर्मका उदय न होकर प्रथमतः यदि अनन्तानुबन्धीकर्मका उदय होता है तो उस समय जोवकी भाववतोशक्तिका जो परिमन होता है वह द्वितीय सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव यदि द्वितीय सासादनसम्यग्दृष्टि होता है तो वह विसंयोजित अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी संयोजना करके उसके उदयमें होता है । दर्शन मोहनीय कर्मकी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृति के उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह तृतीय सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ! दर्शनमोहनीय कर्मकी उक्त तीन और अनन्तानुबन्धी कषायकी उक्त चार इस प्रकार सात प्रकृतियोंके उपशम, क्षय या क्षयोपशम और अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयमें जीवको भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह चतुर्थं अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है । अप्रत्याख्यानावरण कषायके क्षयोपशममें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है वह पंचम देशविरत गुणस्थान है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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