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३ /धर्म और सिद्धान्त : ११५
अशुभ रूपतासे रहित जीवकी मानसिक, वाचनिक और कायिक योगरूप प्रवत्ति मात्र सातावेदनीयकर्मके आस्रवपूर्वक केवल प्रकृति और प्रदेशरूप बन्धका कारण होती है, तथा योगका अभाव कर्मोंके संवर और निर्जरणका कारण होता है।
इस सम्पूर्ण विवेचनसे यह बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है कि जीव-दया पुण्यरूप भी होती है, जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्म रूप भी होती है तथा इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप भी होती है। अर्थात् तीनों प्रकारकी जीवदयाएँ अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व और महत्त्व रखती हैं।
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