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________________ ५४ : सरस्वती-वरदपुत्र पं.० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ गया है उसी प्रकार यहाँ प्रथम गुणस्थानमें मोहनीयकर्मकी मिथ्यात्व और अनन्तानबन्धी कषायके उदयमें भाववतीशक्तिके परिण मनस्वरूप मिथ्यात्वभत निश्चयमिथ्यादर्शन, निश्चयमिथ्याज्ञान और निश्चयमिथ्याचारित्रके रूपमें, द्वितीय गणस्थानमें मोहनीयकर्मकी केवल अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप सासादनसम्यक्त्वभूत निश्चयमिथ्यादर्शन, निश्चयमिथ्याज्ञान और निश्चयमिथ्याचारित्रके रूप में एवं तृतीय गुणस्थानमें मोहनीयककी सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयमें भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप सम्यग्मिथ्यात्वभत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रके रूपमें निश्चय अधर्मका भी विवेचन कर लेना चाहिए। यहाँ भी यह ध्यातव्य है कि चतुर्थगुणस्थानके जीवमें नव नोकषायोंके उदयके साथ अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन कषायोंके सामूहिक उदयमें जीवकी भाववतीशक्तिका जो परिणमन होता है उसे भाव-अविरति जानना चाहिए। इसे न तो भावमिथ्याचारित्र कह सकते हैं और न विरतिके रूपमें भावसम्यकचारित्र कह सकते हैं, क्योंकि भावमिथ्याचारित्र अनन्तानुबन्धी कषायके उदयमें होता है और विरतिके लिए कम-से-कम अप्रत्याख्यानावरण कषायका क्षयोपशम आवश्यक है । उपर्युक्त दोनों प्रकारके स्पष्टीकरणोंके साथ ही यहाँ निम्नलिखित कुछ विशेषताएँ भी ज्ञातव्य है : १. अभव्य जीवोंके केवल प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हो होता है, जबकि भव्यजीवोंके प्रथम गुणस्थान-मिथ्यादृष्टिसे लेकर चतुर्दश अयोगकेवली गुणस्थानपर्यन्त सभी गुणस्थान होते है। २. निश्चयधर्मका विकास भव्य जीवोंमें ही होता है, अभव्य जीवोंमें नहीं होता । तथा भव्य जीवोंमें भी उस निश्चयधर्मका विकास चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समयसे प्रारम्भ होता है, इसके पूर्व के गुणस्थानोंसे नहीं होता। ___३. जीवके चतुर्थगुणस्थानके प्रथम समयमें जो निश्चयधर्मका विकास होता है, वह उस जीवकी भाववतीशवितके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्ज्ञानके रूपमें होता है। इसके पश्चात् जीवके पंचम गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप देशविरति-निश्चयसम्यकचारित्रके रूपमें होता है तथा इसके भी पश्चात् जीवके निश्चयधर्मका विकास सप्तमगुणस्थानके प्रथम समयमें उस जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप सर्वविरति-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है और जीवमें उसका सद्भाव पूर्वोक्त प्रकार षष्ठ गुणस्थानसे लेकर दशम गुणस्थान तक उत्तरोत्तर उत्कर्षके रूपमें विद्यमान रहता है। दशम गुणस्थानके आगे जीवके एकादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप औपशमिक, यथाख्यात-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूप में होता है अथवा दशम गुणस्थानसे ही आगे जीवके द्वादश गुणस्थानके प्रथम समयमें निश्चयधर्मका विकास उस जीवकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप क्षायिक-यथाख्यात-निश्चयसम्यक्चारित्रके रूपमें होता है तथा यह जीवके आगेके सभी गुणस्थानोंमें विद्यमान रहता है । ४. पूर्वमें स्पष्ट किया जा चुका है कि पहला व्यवहारधर्म सम्यग्दर्शनके रूपमें जीवकी भाववतीशक्तिका हृदयके सहारेपर होनेवाला परिणमन है और दूसरा व्यवहारधर्म सम्यग्ज्ञानके रूपमें जीवकी भाववतीशक्तिका मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला परिणमन है एवं तीसरा व्यवहारधर्म नैतिक आचार तथा देशविरति व सर्वविरतिरूप सम्यक्चारित्रके रूपमें मन, वचन और कायके सहारेपर होनेवाला जीवकी क्रियावतीशक्तिका परिणमन है। इस सभी प्रकारके व्यवहारधर्मका विकास प्रथमगुणस्थानमें सम्भव है और अभव्य व भव्य दोनों प्रकारके जीवोंमें हो सकता है। इतना अवश्य है कि उक्त सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूप तथा नैतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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