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________________ ३ / धर्म और सिद्धान्त : ५३ मनुष्योंकी भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर अतत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर अतत्त्वज्ञानके रूप में मिथ्यापरिणमन होते रहते हैं तथा जब उनमें पुण्य भूत अघाती कमोंका उदय होता है तब अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानरूप परिणमनोंकी समाप्ति होनेपर उनकी उस भाववतीशक्तिके हृदयके सहारेपर तत्त्वश्रद्धानके रूपमें और मस्तिष्कके सहारेपर तत्त्वज्ञानके रूपमें सम्यक्परिणमन होने लगते हैं। भाववतीशक्तिके दोनों प्रकारके सम्यक्परिणमनों से तत्त्वश्रद्धानरूप परिणमन सम्यग्दर्शनके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है और तत्त्वज्ञानरूप परिणमन सम्यग्ज्ञानके रूपमें व्यवहारधर्म कहलाता है। ___ चरणानुयोगकी व्यवस्थाके अनुसार भाववतीशक्ति के परिणमनस्वरूप उक्त अतत्त्वश्रद्धान और अतत्त्वज्ञानसे प्रभावित मिथ्यादष्टि मनुष्य अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पी पापभूत प्रवृत्तियाँ किया करते हैं और कदाचित् साथमें लौकिक स्वार्थकी पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करते है। तथा जब वे भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होते हैं, तब वे अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्यागकर मानसिक, वाचनिक और कायिक आरम्भीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके साथ कर्तव्यवश पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ भी करने लगते हैं। इतना ही नहीं, भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानके आधारपर वे अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य कदाचित् क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप उक्त संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक उक्त आरंभीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका भी एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए अनिवार्य आरम्भीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं। इस प्रकार अभव्य और भव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप तत्त्वश्रद्धान और तत्त्वज्ञानसे प्रभावित होकर अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंको सर्वथा त्यागकर जो अपनी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप आरंभीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके साथ पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते है, उन्हें नैतिक आचारके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। तथा वे ही मनुष्य जब संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंके सर्वथा त्यागपूर्वक आरंभीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका एकदेश अथवा सर्वदेश त्याग करते हुए पुण्यभूत शुभ प्रवृत्तियाँ करते हैं, तब उन्हें सम्यकचारित्रके रूपमें व्यवहारधर्म कहा जाता है। प्रसंगवश मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि अभव्य और भव्य मिथ्यादष्टि मनुष्योंकी भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप हृदयके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वश्रद्धान व्यवहारमिथ्यादर्शन कहलाता है। और उनकी उस भाववतीशक्तिके ही परिणमनस्वरूप मस्तिष्कके सहारेपर होनेवाला अतत्त्वज्ञान व्यवहारमिथ्याज्ञान कहलाता है । तथा मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान इन दोनोंसे प्रभावित उन मनुष्योंकी क्रियावतीशक्तिके परिणमनस्वरूप मानसिक, वाचनिक और कायिक संकल्पीपापभूत जो अशुभ प्रवृत्ति हुआ करती है वह व्यवहार मिथ्याचारित्र कहलाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि उक्त प्रकारके व्यवहारमिथ्यादर्शन और व्यवहारमिथ्याज्ञानके विपरीत व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञानसे प्रभावित होकर वे भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि मनुष्य संकल्पीपापभूत अशुभ प्रवृत्तियोंका सर्वथा त्याग करते हुए यदि अशक्तिवश आरम्भी पापका अणुमात्र भी त्याग नहीं कर पाते हैं तो उनकी यह आरम्भी पापरूप अशुभ प्रवृत्ति व्यवहाररूप अविरति कहलाती है। ___ यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि जिस प्रकार पूर्व में मोहनीयकर्मकी उन-उन प्रकृतियोंके यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशमपूर्वक होनेवाले भाववतीशक्तिके परिणमनस्वरूप निश्चयसम्यकदर्शन, निश्चयसम्यग्ज्ञान व देशविरति, सर्वविरति और यथाख्यातसम्यकचारित्रके रूपमें निश्चयधर्मका विवेचन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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