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मनस्वी मनीषी : कुछ संस्मरण .५० बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, हैदराबाद
यह संस्मरणात्मक लेख श्रद्धेय पं० बालचन्द्र जोने मेरे पास १३ अप्रैल १९८९ को भेजा था और । वे १७ अप्रैल १९८९ को स्वर्गस्थ हो गये. यह दैवकी विडम्बना है। भेजते समय वे नहीं जानते होंगे कि उनका इहलौकिक जीवन मात्र ४-५ दिनका है । सं०]
पं० बंशीधरजी एक मनस्वी विद्वान् है। वे अभावोंसे खूब जूझे हैं। किन्तु कभी स्वाभिमानको नहीं खोया और अपनी मनस्विता बनाये रखा। यद्यपि मैं उनका भतीजा है, किन्तु उनसे तीन माह ज्येष्ठ होनेसे आरम्भसे मित्रवत् रहे है । अतः उनके जीवनसे सम्बन्धित कुछ महत्त्वपूर्ण संस्मरण दे रहा हूँ।
बचपनमें हम दोनों समवयस्क होनेसे सोंरईमें साथ-साथ प्रेमसे खेलते-कूदते व लड़ते-झगड़ते भी रहे हैं। दैववशात वि० सं० १९७५ में एक सार्वभौमिक बीमारी फैली, जिसे लाल बुखार (इनफ्लूजा) कहा जाता था। इस बीमारीमें बंशीधरजीके बड़े भाई छतारेलाल (आयु लगभग १५, १६ वर्ष) और उनकी मां राधाबाई दोनोंकी ही २-४ दिनके अन्तरसे मृत्यु हो गयी, तब बंशीधरजी अकेले रह गये थे। उस समय उनकी अवस्था लगभग १२-१३ वर्ष रही होगी। संयोगसे उनके मामा उन्हें वारासिवनी (म० प्र०) अपने घर लिवा ले गये। पर वहाँ उच्च शिक्षाके साधन न होनेसे उन्हें काका पं० शोभारामजी उपदेशक भारतवर्षीय दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, बम्बई अपने साथ सागर लिवा ले आये और वहाँ पं० मुन्नालालजी रांधेलीय न्यायतीर्थ द्वारा सत्तर्क सुधातरंगिणी पाठशालामें उनके अध्ययनकी व्यवस्था करा दी गयी। संयोगसे मैं भी तीन माह पहले सागर पहुँच गया था और उक्त पाठशालामें पढ़ता था। बादको पूज्य पं० गणेशप्रसाद वर्णी हम दोनोंको बनारस ले गये और स्याद्वाद-विद्यालयमें प्रवेश करा दिया, यह उनका महोपकार था। मैं विद्यालयमें ८ वर्ष रक्षा और बंशीधरजी ११ वर्ष रहे। बंशीधरजी उस समयके विद्यार्थियों में अत्यन्त मेधावी छात्र होनेके कारण विद्यालयकी ओरसे अतिरिक्त दस रुपए छात्रवृत्ति मिलती थी।
बंशीधरजीको अन्याय पसन्द नहीं रहा। एक छात्र प्रेमचन्द कटनीको अमृतसरके सेठ मुसद्दीलालजी आठ रुपए मासिक छात्रवृत्ति देते थे। यह विद्यालयके उपाधिष्ठाता बाबू हर्षचन्द्रजीको मालूम हुआ तो उन्होंने वह छात्रवृत्ति विद्यालयमें रोक ली और प्रेमचन्द्रको यह स्वीकार करनेके लिए बाध्य किया कि वह छात्रवृत्तिकी मांग न करे। इसपर बंशीधरजीने उपाधिष्ठाताजीसे कहा कि छात्रवृत्ति तो प्रेमचन्द्रको दे दी जाय और भोजन फीसके रूपमें वह छात्रवृत्ति उनसे विद्यालयमें जमा कर ली जाय। यह बात उपाधिष्ठाताजीको मान्य नहीं हुई और प्रेमचन्द्रको विद्यालयसे पृथक् कर दिया। इसका बंशीधरजीने विरोध किया, तो उपाधिष्ठाताजीने उनसे भी कहा कि क्यों न आपको भी विद्यालयसे पृथक् कर दिया जाय ?' उत्तरमें बंशीधरजीने लिखकर दे दिया कि प्रेमचन्द्र छात्रका मामला समाप्त हो जानेपर मैं स्वयं ही विद्यालय दूंगा। बंशीधरजी उपाधिष्ठाताजीकी बातका इसलिए विरोध कर रहे थे कि वे वह छात्रवृत्ति एक अन्य छात्रको दिलाना चाहते थे, जो उनकी जातिका था। उपाधिष्ठाताजीकी कार्यवाहीकी अधिकारी वर्ग में कडी प्रतिक्रिया हई और अध्यक्षजीने प्रेमचन्द्रका मामला अपने हाथ में ले लिया। बंशीधरजीने भी अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार विद्यालयसे अलग होकर लाला छेदीलालजीके मन्दिरके नीचेके हाल में एक वर्ष रहते हुए व्याकरणाचार्यका अन्तिम खण्ड उत्तीर्ण किया। यह थी बंशोधरजीको न्यायप्रियता और मनस्विता, जो छात्रावस्थासे ही प्रकट हो चुकी थी।
इनकी मनस्विताकी इसी प्रकारकी एक दूसरी घटना है । ये सन् १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलनमें सक्रिय भाग लेनेसे सागरसे बीना आते समय बीना स्टेशनपर गिरफ्तार कर सागर जेल में भेज दिये गये और वहाँसे अमरावती जेल में भेजे गये। वहाँ जेलका सुपरिन्टेन्डेन्ट उस्मान अली था, जो बहुत क्रूर था ।
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