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१०० : सरस्वती-वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रन्य
सन्दर्भ में किया है, जिसमें समन्तभन्द्रने' बतलाया है कि स्याद्वाद (श्रुतप्रमाण) के द्वारा गृहीत वस्तुके नित्यत्वादि पृथक-पृथक् धर्मका प्रकाशक नय है । अकलंकने एक ही धर्मको स्वीकार कर शेष धर्मोंका प्रतिक्षेप करनेवाले नयको दुर्नय क्यों कहा, इसका वे स्वयं उत्तर देते हए कहते हैं, क्योंकि वह विपक्षका निषेध करके अपने ही पक्षका अभिनिवेश (आग्रह) करता है, जबकि वस्तु वैसी नहीं है । वस्तु तो नयों और उपनयोंके द्वारा ज्ञात होने वाले त्रिकालव” एकान्तों (धर्मों) का, जिन्हें एक-दूसरेसे पृथक् नहीं किया जा सकता है अर्थात् जिनमें अविष्वभाव सम्बन्ध है, समुच्चय है ।
जब वस्तु और उसे ग्रहण करनेवाले नयोंकी ऐसी स्थिति है। तब एक पक्षको स्वीकार कर इतर पक्षका निषेध करना मिथ्या एकान्त ही कहा जायगा। उससे बचनेके लिए हमें स्यात्पदांकित वचनोंका ही प्रयोग कर जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित अनेकान्ततत्त्वका प्ररूपण करना चाहिए।३ आचार्य अमतचन्द्रने यह बिलकुल ठीक लिखा है कि जो शिष्य व्यवहार और निश्चयको सम्यक् प्रकारसे (एक दूसरेकी उपेक्षा या तिरस्कार न करके) दोनोंमें मध्यस्थ (तटस्थ) रहता है वही शिष्य स्याद्वादशासनके अविकल (पूर्ण) फलको प्राप्त करता है। इसीसे वे५ अनेकान्तमयी मूर्ति (जिनवाणी) को, जो अनन्तधर्मा वस्तुके प्रत्येक धर्मका सहीसही प्रकाशन करती है, सदैव प्रकाशमान रहनेकी मङ्गल-कामना करते हैं। इतना ही नहीं, वे एकान्तोंके विवादोंमें आगत विरोधको मिटाने वाले और जिनशासनके प्राण अनेकान्तको विनम्रतापूर्वक प्रणाम करते हैं।
प्रस्तुत रचनामें विद्वत्समाजके सिद्धान्तविद् मनोषी श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजीने वर्तमानमें निश्चय और व्यवहारकी सन्धिसे भटके हए लोगोंको निश्चय और व्यवहारके सुमेलका स्मरण दिलाया है तथा दोनोंको देशना सर्वथा एकान्तका त्याग करके कथंचित् एकान्तपरक करनेकी प्रेरणा की है। निश्चय और व्यवहारके जितने रूप हो सकते हैं उन सबका इसमें विस्तारपूर्वक विशदताके साथ विवेचन किया है। उनका यह आवश्यक प्रयास निःसन्देह स्तुत्य है।
विश्वास है यह सन्तलित और गम्भीर, किन्तु विशद शैलीमें रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ विद्वानों, जिज्ञासुओं और स्वाध्याय-प्रेमियों द्वारा निश्चय ही समादत होगा।
१. 'स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः ॥'-आप्तमी० का० १०६ । २. नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः ।
अविभ्राइभावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा ।।-वही, का० १०७ ३. दुनिवार-नयानीक-विरोध-ध्वंसनौषधिः ।
स्यात्कारजीविता जोयाज्जैनी सिद्धान्तपद्धतिः ॥-पंचास्तिकाय टी. प्रार० । ४. व्यवहार-निश्चयौ यः प्रबृध्य तत्त्वेन भवति मध्यस्थः ।
प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥-पुरुषार्थसि० श्लो०८ ५. अनन्तधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः ।
अनेकान्तमयी मूर्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ।।-स० सा० कलश २ । परमागमस्य जीवं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।--पुरुषार्थसि० श्लो०२।
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