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________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ८५ अर्थात् शुभ परिणामसे मुख्यतया धर्म-पुण्यभाव होता है और अशुभ परिणामसे अधर्म-पापभाव होता है तथा इन दोनों ही प्रकारके भावोंसे रहित शुद्ध परिणामवाला, जीव कर्मबन्ध नहीं करता। (ख) यदि इस प्रश्नमें 'धर्म' पदका अर्थ वीतरागपरिणति लिया जाय तो जीवदयाको धर्म मानना मिथ्यात्व है क्योंकि जीवदया पुण्यभाव होने के कारण उसका आस्रव और बन्धतत्त्वमें अन्तर्भाव होता है, संवर और निर्जरातत्त्वमें अन्तर्भाव नहीं होता। समीक्षा प्रस्तुत तृतीय प्रश्न उपस्थित करनेका पूर्वपक्षका उद्देश्य यह था कि आगममें जिस प्रकार जीवदयाको पुण्यरूप मान्य किया गया है उसी प्रकार उसे वहाँ धर्मरूप भी मान्य किया गया है । और फिर जीवदयाके भी तीन भेद हैं-१. पुण्यभूत जीवदया, २. जीवके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मरूप जीवदया और ३. इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभत व्यवहारधर्मरूप जीवदया। इन तीन रूपोंको पूर्वपक्ष तो मानता है किन्तु उनमेंसे उत्तरपक्ष केवल पुण्यभूत जीवदयाको मान्य करता है, धर्मरूप जीवदयाको मान्य नहीं करता है इतना ही नहीं, वह पूर्वपक्षकी धर्मरूप जीवदयाकी मान्यताको मिथ्यात्व कहता है। इसी बातको लक्ष्य करके उपयुक्त तृतीय प्रश्न उपस्थित किया गया । इस परिपेक्ष्यमें विद्वान् समीक्षकका कहना है कि जिस प्रकार जीवदयाको पुण्य मानना मिथ्यात्व नहीं है उसी प्रकार उसे जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चयधर्मके रूपमें व इस निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण भूत व्यवहारधर्मके रूपमें धर्म मानना भी मिथ्यात्व नहीं है। पुण्यभूत जीवदया व्यवहारधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारण होती है तथा इस आधारपर ही आगममें पुण्यभत जीवदयाको परम्परा मोक्षका कारण माना गया है। वास्तवमें तो पुण्यभावरूप जीवदया शुभप्रवृत्तिरूप होनेसे कमोंके आस्रव और बन्धका ही कारण होती है और पूर्वपक्ष भी ऐसा ही स्वीकार करता है। इससे सिद्ध है कि पूर्वपक्ष पुण्यभावरूप जीवदयाको उस प्रकार मोक्षका कारण नहीं मानता जिस प्रकार व्यवहारधर्मरूप जीवदया मोक्षका कारण होती है। पूर्वपक्ष जीवदयाको पुण्यरूप भी मानता है, जीवके शुद्ध स्वभावभत निश्चयधर्मरूप भी मानता है और निश्चयधर्मरूप जीवदयाकी उत्पत्तिमें कारणभूत व्यवहारधर्मरूप भी मानता है तथा अपनी इस मान्यताकी पुष्टिके लिए ही उसने आगमप्रमाणोंको उपस्थित किया है। उत्तरपक्षने तत्त्वचर्चा पृष्ठ संख्या १२५ से १२८ तकका विवेचन जीवकी क्रियावती शक्तिके परिणमनस्वरूप अशुभसे निवृत्तिपूर्वक शुभमें प्रवृत्तिरूप व्यवहारधर्म तथा भाववती शक्तिके परिणमनस्वरूप आत्माके शुद्ध स्वभावभूत निश्चयधर्मके स्वरूप भेदको नहीं समझकर ही किया है । फलतः उत्तरपक्षको वहाँ स्वयंके द्वारा उपस्थित और पूर्वपक्ष द्वारा उपस्थित आगम प्रमाणोंका अर्थ करने में बहुत खींचातानी करनी पड़ी है। प्रश्नोत्तर ४ और उसको समीक्षा पूर्वपक्ष--व्यवहारधर्म निश्चयधर्ममें साधक है या नहीं ? १. तत्त्वचर्चा, पृष्ठ ९३ । २. समीक्षा, भाग १, पृ० २४९ । ३. वही, पृ० २५२। ४. वही, पृ० २५८। ५. ज० तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा, पृ० २७२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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