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________________ जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा : एक मूल्यांकन • डॉ० फूलचन्द्र जैन प्रेमी. अध्यक्ष-जैनदर्शन विभाग, स० सं० वि० वि०, वाराणसी सिद्धान्ताचार्य पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य द्वारा लिखित 'जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा" नामक समीक्षा-ग्रन्थ मेरे समक्ष है। पिछले कुछ महीनोंसे मैं इसका निरन्तर अध्ययन और मनन कर रहा है। राष्ट्रभाषामें इस प्रकारके समीक्षा-ग्रन्थ प्राचीन विद्वानों द्वारा लिखित मूल-ग्रन्थोंसे कम महत्त्वके नहीं हैं। भले ही किसी भी विषयकी समीक्षा करने या उसके विषयमें सोचनेका अपना नजरिया (दृष्टिकोण) अलग (विशेष) हो। इस ग्रन्थके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि इसके लेखक सैद्धान्तिक विषयोंके मर्मज्ञ विद्वान तो है ही, साथ ही किसी भी सैद्धान्तिक विषयको सूक्ष्मता और विस्तारसे प्रतिपादन करनेकी क्षमता भी उनमें विशेष है। इस ग्रन्थके विद्वान सम्पादक डाँ० दरबारीलालजी कोठियाने अपने सम्पादकीय वक्तव्यमें ठीक ही लिखा है कि "व्याकरणाचार्यजीके चिन्तनकी यह विशेषता है कि वे हर विषयपर गम्भीरतासे विचार करते हैं और जल्दबाजीमें वे नहीं लिखते । फलतः उनके चिन्तनमें जहाँ गहराई रहती है, वहाँ मौलिकता और समतुला भी दष्टिगोचर होती है। यह सब भी जैनागम, जैनदर्शन और जैन न्यायके समवेत प्रकाशमें उन्होंने किया है। इस दष्टिसे उनका यह समीक्षा-ग्रन्थ निश्चय ही तत्त्व-निर्णय-परक एवं महत्त्वपूर्ण है।" __ प्रस्तुत ग्रन्थ जिस ग्रन्थकी समीक्षा हेतु लिखा गया है वह है पं० टोडरमल ग्रन्थमाला, जयपुरसे १९६७ में प्रकाशित एवं सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री वाराणसी द्वारा सम्पादित “जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा" नामक ग्रन्थ । इस समीक्षा-ग्रन्थका भी अपना इतिहास है। सोनगढ़ से प्रवर्तित अध्यात्म एवं कुछ अन्य सिद्धान्त अनेक जैन विद्वानोंकी दृष्टिमें एकाङ्गी थे। अतः वे इस धाराका विरोध करते थे । किन्तु कुछ विद्वान् इस धाराके प्रबल समर्थक थे । इससे समाजमें निरन्तर परस्पर विवाद एवं विरोधकी स्थिति बनी हुई थो । यद्यपि यही स्थिति आजतक विद्यमान है । अन्तर मात्र इतना ही है कि पहले सैद्धान्तिक रूपमें ही अधिक विरोध होता था, किन्तु आज सैद्धान्तिक कम और विरोधके लिए विरोध अधिक है जबकि खण्डन-मण्डन या या विरोधकी परम्पराका निर्वाह होना चाहिए। प्रस्तूत समीक्षा-ग्रन्थके रचयिता विद्वानने ओछे तरीके न अपनाकर शास्त्रीय और आगमिक प्रमाणों द्वारा उन सिद्धान्तों और मान्यताओंकी समीक्षा करके प्रशस्त मार्ग अपनाया, जो सिद्धान्त उनकी दृष्टिमें ठीक नहीं थे। इस दृष्टिसे मैं प्रस्तुत समीक्षा-ग्रन्थकर्ता विद्वानका प्रशंसक हूँ। विद्वान समीक्षकने भावी पीढी के लिए भी सैद्धान्तिक विषयोंकी समीक्षा एवं उनसे ज्ञानप्रा आदर्श-मार्ग एवं स्वस्थ परम्पराका पथ-प्रदर्शन किया है। सोनगढ़की विचारधाराके प्रति बढ़ते सैद्धान्तिक विरोधके कारण समाजके अन्दर विखराव एवं विवाद की बढ़ती स्थितिको देखकर पूज्य स्व० आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज एवं अनेक विद्वानोंके मनमें इन विवादोंको परस्पर सैद्धान्तिक तत्त्वच के माध्यमसे दूर करनेकी प्रबल भावना उत्पन्न हुई, ताकि समाजके सौहार्दपूर्ण वातावरणमें कमी न आये। इसी शुभ उद्देश्यसे ब्र० सेठ हीरालालजी एवं ब्र० लाडमलजी द्वारा आचार्यश्रीकी प्रेरणासे तत्त्वच हेतु एक विद्वत्-सम्मेलन बुलानेका निश्चय किया गया। तदनुसार ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक गुलाबी नगर जयपुरके समीपस्थ खानिया तीर्थक्षेत्रमें विराजमान आचार्य श्री शिवसागरजीके सान्निध्य में दोनों पक्षोंके विद्वानोंको परस्पर तत्त्वचर्चा हेतु सादर आमन्त्रित किया १. प्रकाशक-श्रीमती लक्ष्मीबाई (पत्नी पं० बंशीधर शास्त्री) पारमार्थिक फण्ड, बीना (सागर) म०प्र०, सन् १९८२, पृष्ठ सं० ५०५, मूल्य ५० रु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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