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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ७९
क्रमबद्ध पर्यायका परीक्षण
केवलीके ज्ञानमें सभी द्रव्योंकी, भूत, भविष्यत, वर्तमानकी, सभी पर्यायें एक साथ प्रकट झलकती हैं, इस कथनका सहारा लेकर कुछ लोंगोंने 'क्रमबद्ध-पर्याय'का एक नया विधान किया है । आश्चर्यकी बात है कि 'क्रमबद्ध-पर्याय' शब्दका प्रयोग सम्पूर्ण जैन आगममें, किसी भी आचार्यके द्वारा, कहीं भी नहीं किया गया है। चालीस-पचास साल पहले जबसे सोनगढ़ में यह शब्द गढ़ा गया तभीसे आगमके ज्ञाता मनीषियोंने इसे मिथ्यात्व-पोषक धारणा बताकर बराबर इसका विरोध किया है।
पण्डित बंशीधरजीने इस सन्दर्भ में भी अपना स्पष्ट मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि-'पूर्वोक्त प्रकार केवलज्ञानमें जब प्रत्येक वस्तुकी कालिक पर्यायें यथास्थान नियत हैं तो उनकी उत्पत्तिका प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि केवलज्ञानीको तो प्रत्येक वस्तूकी त्रैकालिक पर्यायें यथावस्थित रूप ही सतत वर्तमानवत् प्रतिभासित होती रहती हैं। इस तरह उत्पाद्योत्पादकभावकी व्यवस्था श्रुतज्ञानमें ही सम्भव होती है । अर्थात् श्रुतज्ञानी जीव ही अभीप्सित फलकी आकांक्षासे कार्यको सम्पन्न करनेका संकल्प करता है, कार्यकारणभावकी रूपरेखा निश्चित करता है, कार्योत्पत्तिके साधन जुटाता है और तब कार्योत्पत्तिके लिए पुरुषार्थ करता है। इसलिए श्रुतज्ञानको व्यवस्थामें बाधक कारणोंको स्थिति स्वीकार करनेमें कोई असंगति नहीं उत्पन्न होती है।'
इस प्रकार पण्डितजीका यह निष्कर्ष पूरी तरह आगमका अनुगामी है कि विवक्षित कार्य तभी होता है जब उपादानगत योग्यता हो, अनुकूल निमित्तसामग्रीका सहयोग हो और कार्यके बाधक कारणोंका अभाव हो । केवलीके ज्ञानमें सभी पदार्थ अपनी-अपनी त्रैकालिक पर्यायोंके साथ प्रतिक्षण, वर्तमानवत् समानरूपसे प्रतिभासित होते रहते हैं, परन्तु केवलीका ज्ञान किसी भी द्रव्यके परिणमनमें नियामक नहीं है। वस्तुका परिणमन उसकी अपनी योग्यता और निमित्तोंकी अनुकूलताके अनुसार होता है।
___ विषयका उपसंहार करते हुए पण्डितजीने यह निष्कर्ष निकाला है कि-"जैनदर्शनमें कार्यकारणभावको उपर्युक्त प्रकारसे दो प्रकारका स्वीकार किया गया है-एक तो उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव और दूसरा निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाव । इनमेंसे स्वप्रत्ययकार्य की उत्पत्तिमें केवल उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव ही कार्यकारी होता है और स्वपर-प्रत्यय कार्यकी उत्पत्तिमें उपादानोपादेयभावरूप तथा निमित्तनैमित्तिकभावरूप दोनों ही तरहके कार्यकारणभाव कार्यकारी होते हैं। विशेष इतना है कि उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव तो उपादानके कार्यरूप परिणत होनेके आधारपर कार्यकारी होता है। लेकिन निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाव उपादानकारणकी कार्यरूप परिणतिमें सहायक होनेके आधारपर कार्यकारी होता है। इस तरह दोनों ही कार्यकारणभाव अपने-अपने ढंगकी कार्यकारिताके आधारपर वास्तविक ही सिद्ध होते हैं और कोई भी कार्यकारणभाव कार्योत्पत्तिमें अकिंचित्कर सिद्ध नहीं होता है । अतः निमित्तननिमित्तकभावरूप कार्यकारणभाव कथनमात्ररूपमें व्यवहारनयका विषय नहीं होता, किन्तु वास्तविक अर्थात् सद्भावात्मक या कार्यकारीरूपमें ही व्यवहारनयका विषय होता है। दोनों कार्यकारणभाव विकल्पात्मक होनेसे केवलज्ञानके विषय नहीं होते। इतना ही नहीं, वे विकल्पात्मक होनेसे मति ज्ञान और मनःपर्ययज्ञानके भी विषय नहीं होते, केवल विकल्पात्मक श्रुतज्ञानके ही विषय होते हैं।"
इस प्रकार "जैनदर्शनमें कार्यकारणभाव और कारकव्यवस्था' नामकी यह छोटी-सी पुस्तक लिखकर व्याकरणाचार्यजीने जैनदर्शनके बहत संवेदनशील सन्दर्भीपर अपनी अनुभव-सिद्ध लेखनी चलाकर उनका सहज और समर्थ विश्लेषण किया है। साथ ही अपनी तर्क-शक्ति और आगम प्रमाण द्वारा उन्होंने वर्तमानमें प्रवर्तमान अनेक भ्रान्त धारणाओंका निराकरण करके मुमुक्षु-समुदायपर बड़ा उपकार भी किया है ।
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