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________________ २/व्यक्तित्व तथा कृतित्व : 65 'व्याकरणाचार्य' उपाधि भी हमारे मनमें अत्यन्त श्रद्धा पैदा करनेवाली थी। संस्कृत-व्याकरणकी क्लिष्टतासे कौन अध्येता परिचित नहीं है। लोहेके चने हैं। ऐसे विषयमें जिसने आचार्यत्व प्राप्त किया हो वह अपनी अपूर्व मेधाके कारण कितना विस्मयोत्पादक, अतएव श्रद्धाका पात्र न होगा। पंडितजीने स्वतंत्रता संग्राममें भी भाग लिया था और जेल गये थे। संस्कृत और जैन सिद्धान्तके उद्भट विद्वानकी इस देशभक्ति और स्वातंत्र्यप्रियताका जब हमें बोध हुआ तब हमारा मस्तक गर्वसे ऊँचा उठ गया और श्रद्धा द्विगुणित हो गई। __ लम्बा अरसा बीत गया। सन् 1980 में सागर ( म०प्र० ) में पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराजके ग्रीष्मयोगके अवसर पर एक महानिबन्ध-प्रतियोगिताकी घोषणा हुई थी। विषय था 'मोक्षमार्गमें निश्चय-व्यवहारकी उपयोगिता।' मेरा निबन्ध इसमें पुरस्कारयोग्य एवं प्रकाशनार्थ पाया गया था। बादमें ज्ञात हुआ कि इसके तीन निर्णायकोंमेंसे एक व्याकरणाचार्यजी भी थे / इस विषयमें माननीय डॉ० दरबारीलालजी कोठियाने एक रोचक किस्सा सुनाया। मेरे निबन्धको प्रति जब व्याकरणाचार्यजीको प्राप्त हई तब उन्होंने 'निश्चय-व्यवहार' विषय देखकर अरुचिपूर्वक उसे वि०प० के कार्यालयको लौटा दिया, क्योंकि एक अरसेसे एक विशेष विचारधाराके अन्तर्गत निश्चय-व्यवहारका अत्यन्त गलत प्रतिपादन किया जा रहा था। इससे व्याकरणाचार्यजीका मन अत्यन्त विरस हो गया था / किन्तु आदरणीय डॉ० कोठियाजी द्वारा उसे अवश्य पढ़ने की प्रेरणा करने पर उसे उन्होंने कार्यालयसे पुनः मंगाया और उसे पढ़कर अत्यन्त प्रसन्न हए / उन्होंने अपने प्रतिवेदनमें इसे सर्वश्रेष्ठ घोषित किया / यहीसे पण्डितजीका नकटय प्राप्त हुआ। प्रतियोगिताका परिणाम घोषित होनेके लगभग चार माह बाद मुझे श्रद्धेय व्याकरणाचार्यजीका एक पत्र प्राप्त हआ, जिसमें लिखा था कि बीनाकेक सज्जन मेरे महानिबन्धको पस्तकरूपमें प्रकाशित करना चाहते हैं। यदि मैं इच्छक होऊँ तो शीघ्र उनसे आकर मिल / पण्डितजीका पत्र पाकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अपना अहोभाग्य समझा कि जैनदर्शनके एक वयोवृद्ध, मूर्धन्य विद्वान्ने मुझे अपने पास बुलाया है / मेंने पण्डितजीको अपने पहँचनेकी तिथि सूचित की और उनके पास बीना पहँचा। पहँचनेपर मैंने उनके चरणोंका स्पर्श किया / पण्डितजी बोले-'रतनचन्द्र, मुझे तुम्हारा निबन्ध बहुत अच्छा लगा। मेरा हृदय प्रसन्न हो गया / ' पण्डितजीने स्वयं चलकर स्नान वगैरहका स्थान बतलाया, अपने साथ भोजन कराया और अपने विश्रामकक्षमें ले जाकर विश्राम करनेके लिए कहा / साथ ही पूछा-'विश्रामके बाद दूध-चाय क्या लोगे ? जो लेना हो. निःसंकोच कहना, अपना ही घर समझना।' यह कहकर पण्डितजी दुकानमें चले गये / बाजारका दिन था। दुकानमें सहयोग देना था। पण्डितजीके इस अननुभतपूर्व वात्सल्यमय आतिथ्यसे मैं गद्गद हो गया। लगा जैसे अपने घरमें आ गया हैं। पण्डितजीके मानवीय व्यक्तित्वका साक्षात्कार कर मैं अपूर्व आनन्द और श्रद्धाके सागरमें डूब गया। विद्वत्ता और सहृदयताका अद्भुत संगम देखकर नेत्र सजल हो गये। पचहत्तर वर्षको अवस्थामें पण्डितजीकी दिनचर्या देखकर बड़ा आश्चर्य हआ। पण्डितजो रात्रिको नौ बजे सो जाते हैं और सुबह तीन बजे उठते हैं / उठकर स्वाध्याय और लेखन करते हैं / उन्होंने अधिकांश लेखन इसी समय किया है। यही समय उन्होंने मुझे चर्चा के लिए दिया था। मैं भी तीन बजे उठ गया। पण्डितजीसे चर्चा हई। उन्होंने मेरे निबन्धमें कुछ स्पष्टोकरण सुझाये। मैंने समाधानके लिए अनेक प्रश्न उनके सामने रखें। पण्डितजीने शान्तभावसे समाधान किया। पण्डितजोको समझानेको शैली अत्यन्त 2-1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012047
Book TitleBansidhar Pandita Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Jain
PublisherBansidhar Pandit Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages656
LanguageHindi, English, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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