________________ राष्ट्र एवं समाजकी अतुलनीय विभूति * डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन, मानद निदेशक अ० शो० पी०, उज्जैन खादीकी स्वच्छ श्वेत नुकीली टोपी, खादीके कुर्तेके ऊपर जवाहर जाकेट एवं खादीकी धोती, आँखों पर चश्मा, भोला चेहरा और सतर्क नेत्र, संक्षेपमें यह है हमारे आदरणीय पण्डित बंशीधरजीका बाह्य व्यक्तित्व और आन्तर व्यक्तित्व है उनका स्वाभिमानपूर्ण आगमिक एवं दार्शनिक चिन्तनसे ओतप्रोत तेजस्वी रूप। आप कहेंगे पण्डितजीका नाम बंशीधर क्यों है ? बंशीधरका अर्थ होता है श्रीकृष्ण / इनका नाम तो जैनेन्द्र, ऋषभ, अभिनन्दन, सत्यंधर आदि होना चाहिए था। इसका उत्तर यह है कि आजसे लगभग सौडेढ़-सौ वर्ष पूर्व समाजमें जैन पण्डित नहीं थे। जन्म और मृत्यु के समय ब्राह्मण पण्डित ही हमारे शरण थे। यही कारण है कि हमारे वयोवृद्ध पण्डित-जनोंके नामोंपर उन्हींकी संस्कृतिकी छाप है। जैसे पण्डित गणेशप्रसादजी वर्णी, बाबा भगीरथजी वर्णी, पं० गोपालदासजी बरैया, पं० देवकीनन्दनजी, पं० जगन्मोहनलालजी, आदि / उसी परम्परामें हमारे अभिनन्दननीय पण्डितजीका नाम पं० बंशीधर रखा गया है। आदरणीय पण्डितजीने स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसीमें जैनधर्म एवं दर्शनका अध्ययन समाप्त कर समाज, साहित्य एवं पत्रकारिताके लिए अपनी सेवाएँ अर्पण करते हुए, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता-संग्राममें भी योगदान किया। मैं आदरणीय पण्डितजीका जीवन जैन पण्डितोंके लिए आदर्श मानता हूँ। इसका कारण यह है कि उन्होंने विद्याको आर्थिक आधार न बनाते हुए स्वतंत्र व्यवसाय द्वारा अपनी आजीविका चलायी / इसी कारण उन्हें समाजमें विशिष्ट सम्मान प्राप्त हुआ। आदरणीय पण्डितजी चौरासी वर्षकी आयुमें निष्प्रमादभावसे अपने जीवनके आदर्शोको पूर्ण करने में संलग्न हैं, यह बात आजके विद्वानोंके लिए अनुकरणीय है। वेदोंमें "जीवेम शरदः शतम" कहकर सौ वर्षों तक जीनेका आदर्श रखा गया है। साथ ही "अदीनाः स्याम शरदः शतम्" कहकर सौ वर्षों तक मनोबलको ऊँचा रखनेकी बात भी कही गयी है। हम आदरणीय पण्डितजीके शतायु होनेकी कामनाके साथ उनकी आनिःश्रेयस् आध्यात्मिक समृद्धिको हृदयसे कामना करते हैं। विद्वत्ता और सहृदयताके संगम .डॉ० रतनचन्द्र जैन, रीडर-भोपाल विश्वविद्यालय, भोपाल 'पंडित बंशीधरजी व्याकरणाचार्य' यह नाम बचपन में अपने पिताश्री (पंडित बालचन्द्रजी प्रतिष्ठाचार्य)के मुँहसे सुना था। वे बड़े आदरसे यह नाम लिया करते थे। व्याकरणाचार्यजीकी विद्वत्ताकी धाक मेरे पिताजी के मन में बड़े गहरे पैठी थी। उनके बारेमें बार-बार चर्चा करके पिताजी संभवतः हमलोगोंको उन जैसा ही बननेकी प्रेरणा देते थे। बचपनमें एक बार उनके दर्शन भी पिताजीने सागरमें कराये थे। खद्दरकी धोती, कुर्ता और टोपीमें भव्य लग रहे थे। उस समय उनकी आयु लगभग पैंतालीस वर्ष रही होगी। दिव्य तेज मुखपर झलक रहा था। पिताजीसे वे अत्यन्त विनम्रतापूर्वक मिले थे। पिताजी अवस्थामें उनसे कुछ ज्येष्ठ थे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org