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ग्रन्थका तीसरा खण्ड पण्डितजीके धर्म एवं सिद्धान्त विषय पर लिखे गये १६ लेखोंसे अलंकृत है। इस खण्डमें सभी लेख ऐसे हैं जिनमें जैन धर्म एवं सिद्धान्त विषयका मौलिक चिन्तन भरा पड़ा है भगवान् महावीरकी धर्म तत्त्व देशनासे लेकर आत्मतत्त्व पर चिन्तन परक लेखके साथ ही निश्चय और व्यवहारनयपर पण्डितजीके चार दिशा बोधक लेख है जिनको पढ़नेसे इस विवादास्पद विषयको समझने में पर्याप्त सहयोग मिलता है। जैन धर्ममें भव्य और अभव्य बड़े टेक्निकल शब्द है। अभव्य शब्द समझनेवालेके लिये धार्मिक अपशब्द है जिसको पचापाना जैनोंके लिये कठिन होता है। कोई भी अपने आपको अभव्य कहलानेके लिये तैयार नहीं है। पण्डितजीने इसपर अपने लेखमें अच्छा प्रकाश डाला है । इसी खण्डमें पण्डितजीका एक खोज पूर्ण लेख "पर्यायें क्रमबद्ध भी होती है और अक्रमबद्ध भी" विषयपर है। पण्डितजीके स्वरमें अनेकान्त सिद्धान्तका प्रतिपादन है। पर्यायोंको क्रमबद्ध ही बतलाना भगवान् महावीरके उस सिद्धान्तके विरुद्ध है जिसमें वस्तुतत्त्वके निरूपणमें अनेकान्त शैलीको अपनानेपर बल दिया गया है। इसी खण्डमें "भुज्यमान आयुमें अपकर्षण एवं उत्कर्षण' विषयपर पण्डितजीका लेख पाठकोंमें उत्सुकता पैदा करनेवाला है। इसी खण्डमें 'जयपुर खानिया तत्त्वचर्चा और उसकी समीक्षा' भाग एकमें दिये गये उपयोगी प्रश्नोत्तर १, २, ३ व ४ की सामान्य-समीक्षा सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण लेख भी दिये गये हैं । जो पाठकोंको सही दिशाका बोध करायेंगे।
खण्ड में पण्डितजीके जैनदर्शन और जैन-न्यायपर आधारित ११ लेखोंका संग्रह है। जिनमें जैनदर्शनके विभिन्न पक्षोंको उद्घाटित किया गया है। सर्वप्रथम भारती दर्शनों पर एक सामान्य लेख है जिससे सभी दर्शनोंका सामान्य ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसके पश्चात् पण्डितजीके सभी लेख जैनन्यायपर आधारित हैं जिनमें प्रमाण और नयका कथन, अनेकान्त एवं स्याद्वाद वस्तुका स्वरूप, सप्त तत्त्व और छः द्रव्योंपर पण्डितजीके विचार उनके गहन अध्ययनका निचोड है। वैसे किसी भी दर्शनकी गत्थियोंको सुलझाना सहज कार्य नहीं है फिर भी पण्डितजीने इन विषयोंको सरल बनाने का स्तुत्य प्रयास किया है।
पंचम खण्डमें ९ लेख जैन साहित्य एवं इतिहास परक हैं। इनमें एक लेख 'षट्खण्डागम संजद पदपर विमर्श" शीर्षक पर है । आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके समयमें संजद शब्दको लेकर बड़ा आन्दोलन चला था और समाज दो धाराओंमें बँट गया था। पण्डितजीका यह लेख उसी समयका लिखा हुआ है और आज ऐतिहासिक बन गया है। इसी खण्डमें एक लेख इतिहास परक है वह पाठकमें उत्सुकता पैदा करता है।
छठा खण्ड संस्कृति एवं समाजपरक है जिनकी संख्या ६ है। भगवान महावीरका समाज दर्शन लेख तथा जैन मन्दिर और हरिजन ये दोनों ही लेख अपने समयके बहुचर्चित विषयपर आधारित हैं। तथा उनसे पण्डितजीके विचारोंकी झलक मिल सकती है। .
इस प्रकार अभिनन्दन ग्रन्थका अधिकांश भाग स्वयं पण्डितजी द्वारा लिखित सामग्रीका नव सम्पादित संकलन है। उससे उनकी अमूल्य साहित्यिक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक एवं सामाजिक विषयोंसे ओतप्रोत सामग्रीकी रक्षा हो सकेगी तथा आगे आनेवाली पीढ़ियोंको उनके स्वाध्यायका लाभ मिल सकेगा। अभिनन्दन ग्रन्थकी सीमित पष्ठ संख्याको देखते हये पण्डितजीके बहतसे लेखोंको इसमें सम्मिलित नहीं किया जा सका । उनका भी सुसम्पादित होकर आना आवश्यक है इसके अतिरिक्त जिन लेखकोंके लेखोंको हम इस अभिनन्दन ग्रन्थ स्थान नहीं दे सके उन विद्वान् लेखकोंसे हम क्षमा चाहते हैं ।
___अभिनन्दन ग्रन्थके प्रधान सम्पादक डॉ० दरबारीलालजी कोठिया हैं । यद्यपि सम्पादकीय लेख लिखना उन्हींके अधिकार क्षेत्रमें आता है। लेकिन उन्होंने यह गुरुतर भार मुझे सौपा है उसके लिये मैं उनका एवं
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