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५८ : सरस्वती-वरदपुत्र पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
गुरुओंके सतिशय स्नेह-भाजन हुए थे। आचार्यमें व्याकरण-दर्शन पढ़ाये जानेपर गुरुओं तथा इनको स्वयं यह आभास हुआ कि यह युवक तो दर्शन और न्यायके योग्य क्षयोपशमशाली है। इस प्रतिभा-परीक्षणके बाद बंशीधरजीने स्वयं स्वाध्यायद्वारा जैन न्यायके मानक महाग्रन्थोंका अध्ययन किया। और काशी विश्वविद्यालयसे जैनदर्शन शास्त्री एवं बंगाल संस्कृत ऐसोशियेशनसे न्यायतीर्थ परीक्षा ससम्मान उत्तीर्ण करके सर्वांग विद्वत्ताको प्राप्त किया। तथा प्रारम्भिक किशोर सहाध्यायियोंकी प्रतिभा-परीक्षणको उनकी हितकामनासे अपनाया था। इन पंक्तियोंके लेखकको १९२८ में गुरुवर गणेशवर्णीने श्रमण-शिक्षासंस्था-भ्रमणप्रक्रमसे पकड़ स्याद्वाद महाविद्यालयकी लोकोत्तर-छात्रता वंशीधरजी, परमानन्दजी तथा भैयाजी हरिप्रसादके आग्रहपर ही दिलायी थी, क्योंकि उस समयतक छात्रावासमें एक भी स्थान रिक्त नहीं रहा था । एक दिन विद्यालयकी छत पर अभ्यास करते समय इन्होंने अष्टसहस्रीकी कारिका"हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिः द्वतं वाङ्मात्रतो न किम् ।।"
दिखायी और विशारद प्रथमखण्डके लघतम छात्रको इसका अनुवाद करनेको कहा। याद नहीं, अनुवाद कैसा, क्या रहा होगा? पर इन्होंने अपने न्यायतीर्थ-परीक्षाप्रपत्रके साथ उसका भी न्याय-प्रथमाका परीक्षा-प्रपत्र भरवा दिया। और उच्चकक्षा-छात्र पं० श्रतसागरजीकी कृपासे दो मासमें न्यायप्रथमाकी तैयारी करके न्यायशास्त्र रुचिकर बना सका था, जिसकी पूर्णा वह साहित्यशास्त्री (ग० सं० को०) तथा तृतीयवर्ष कला (का० वि० वि०) के साथ इनके समान ही न्यायतीर्थ (बं० सं० ए०) करके कर सका था। न्यायबुद्धि
पं० बंशीधरजीकी न्यायप्रियता शास्त्र-अध्ययन तक ही सीमित न थी। अपितु वह प्रत्येक अनुचितके प्रतिरोधरूपसे प्रस्फुटित होती थी । इसका प्रथम प्रदर्शन मुझे १९२९ में विद्यालयमें ही देखनेको मिला था। विशेष बुद्धिमान् छात्रोंको योग्यतावृत्तियां भी मिलती थीं। फलतः विद्यालयमें यह नियम वन गया था कि एक-से-अधिक योग्यता-वृत्ति पानेवाले छात्रोंको भोजनशल्क पांच रुपया मा० जमा करनी होगी। संयोगात् छात्रोंने इसका उल्लंघन किया । और एक ऐसे ही छात्र ने झूठ भी नहीं बोला। फलतः उसे तत्कालीन उपअधिष्ठाताजीने छात्रावाससे पृथक् कर दिया । व्याकरणाचार्यने मांग की थी कि 'ऐसे सभी छात्रोंको पृथक किया जाय ।' इसपर उन छात्रोंको छोड़कर इन्हें ही पृथक कर दिया गया। किन्तु ये न्यायमार्गपर रहे और छात्रावास छोड़कर चले गये तथा बाहर रहकर भी अपने गुरुकुलके छात्ररूपसे ही व्याकरणाचार्य पूर्ण करके उसे गौरवान्वषित किया था। मनस्चिता
संयोगात इनका विवाह एक सम्पन्न घरानेकी एकमात्र पुवीके साथ हुआ था। किन्तु व्याकरणाचार्य होते ही ये व्यावरके जैन सम्प्रदायी साधुओंको पढ़ानेके लिए आमंत्रित किये गये, तो इन्होंने ससुरालकी विपुल सम्पत्तिकी उपेक्षा करके अल्पवित्त आत्मभरताको ही वरीयता दी। तथा ससुरके एकमात्र संतानस्नेहकी भावनात्मक सुकुमारताका पालन करते हुए भी व्यवसायी-बुद्धिजीवी ही रहे। तथा परम आध्यात्मिक साधक पं० भागचन्दजी आदिके समान ग्राहक निवटाकर शारदा-साधनामें ही लगे रहे। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः
व्याकरणाचार्यजीका शब्दशास्त्रका पूर्ण अध्ययन तथा श्रमणधर्म-न्यायपारंगतता स्वान्तःसुखाय ही रही है । यह इनका पूर्वपुण्योदय था कि मूर्धन्य विद्वान् होकर भी इन्होंने जिनवाणीसे आजीविका कभी नहीं
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