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२/ व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ५७ किलों और गढ़ियोंसे व्याप्त इस अंचलको वर्षा ऋतु आनेपर चौपालोंमें आल्हाकी गूंजने और ढोलककी हुँकारने बुन्देली भावनाकी वेलको सूखने नहीं दिया। मध्यमवर्ग दि० जैन समाज
'इत जमना उत नर्मदा' अंचल में श्रम तथा शस्त्रप्रवण लोदी, ठाकूर एवं किसान और शास्त्ररत ब्राह्मण और विपणन एवं संस्कृति प्रधान श्रमणोंकी मुख्यता है। फलतः श्रमण एवं ब्राह्मण (वैदिक) धर्मोके आगार ही शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समाजसंचालनके केन्द्र रहे हैं । दोनों धर्मोके अनुयायियोंमें नित्य देवदर्शन, त्याग, सेवा और स्वाध्यायको परम्परा है । श्रमण अन्य वर्गोंकी अपेक्षा आर्थिक दृष्टिसे अधिक समर्थ हैं। अतएव गाँव-गाँवमें मन्दिरोंके समान शिशु-शालाएँ चलाना भी इनके नित्य कार्योंमें माना जाता है । धर्म-समदष्टि इतनी अधिक है कि एक घर मुसलिम होनेपर भी ताजिये ऐसे निकलते हैं जैसे पुरा गांव ही मुल्लिम हो। इस सौमनस्यके कारण श्रमण-पाठशालाओंमें ही बहुधा गांव भरके शिशुओंका विद्यारम्भ होता है। इस प्राग्वैदिक परम्पराकी यह देन है कि वैष्णव घरमें उत्पन्न गुरुवर गणेशप्रसाद श्रमण-संस्कृतिके बौद्धिक जागरणके अग्रदूत हो सके। और प्रथम राष्ट्रपति (महामहिम राजेन्द्र बाबू) तथा गांधीजीके अहिंसा-सत्याग्रहके प्रथम मार्शल बिनोवाजीके द्वारा राष्ट्रसन्तके रूपमें मान्य हुए । 'नास्तिको वेदनिन्दकः'का आजोवन ब्रह्मचारी गणेशप्रसाद वर्णीने शिष्यरूपसे विसर्जन कराके काशी में स्याद्वाद महाविद्यालयको स्थापना की। और सर्बप्रथम वैश्य-न्यायाचार्य होकर पूरे बुन्देला-अंचलको श्रमण-पाठशालाओंकी दीपमालिकासे चमका दिया। तथा पूरे देशकी पगयात्रा करके मस्लिम-साम्राज्यके कारण फारसी (उर्दु नहीं) पढ़नेवाले पंजाब ही क्या; पूरे उत्तर भारतके मध्यमवर्गको प्राकृत-संस्कृतकी ओर आकृष्ट किया। स्याद्वाद-महाविद्यालयका स्वर्णयुग
गुरुवर गणेशप्रसाद वर्णों पद-प्रतिष्ठासे सर्वदा एवं सर्वथा विमुख रहे। इस यथार्थ विरक्तिका ही यह सुफल था कि स्याद्वाद महाविद्यालयके संस्थापक होकर भी उन्होंने प्रथम-अधिष्ठाता बाबा भागीरथजीको बनाया था। तथा इनके बाद धर्म-सेवामें उतरे अभिजात (श्री उमरावसिंह रईश) युवक आजीवन ब्रह्मचारी ज्ञानानन्दजी तथा ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीको इस महापदपर प्रतिष्ठित किया था। अपने सूधारक विचारोंके कारण शीतलप्रसादजीके हट जानेपर कानपुरके राष्ट्रीय कांग्रेसके अधिवेशनमें योगदानके साथ इस श्रमणसंस्कृतिके तथा अपने गुरुकुलके नैतिक भारको सम्हाला था । विशेषता यही थी कि अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष आदि वैध पदोंका भार देशके विद्याप्रेमी श्रीमानोंके ऊपर ही रहता था। तथा वे भी इनके लोकोत्तर व्यक्तित्वके कारण सेवा तथा त्यागको मुख्य मानकर चलते थे। तथा काशी विश्वविद्यालयकी स्थापनाके पूर्व ही यह विद्यालय दक्षिण तथा उत्तरके छात्रोंका अनुपम केन्द्र बन गया था। यही कारण था कि राष्ट्रपिता उक्त विश्वविद्यालयको स्थापनाके समय इस विद्यालयमें ही आकर ठहरे थे। तथा राष्ट्रीय स्वातन्त्र्य-संग्रामके स्कन्धावार (छावनी) काशी विद्यापीठकी योजना इसकी विशाल छतपर ही साकार हुई थी। तथा स्वदेशी-आन्दोलनका ओंकार भी ब्र० ज्ञानानन्दजीके 'अहिंसा प्रेस' से यहीं हुआ था । सन् '२५ से ३९' तकके युगमें इस विद्यालयने न्याय, साहित्य, सिद्धान्त आदिके अनेक आचार्य देशको दिये थे। यद्यपि व्याकरण शुष्क एवं क्लिष्ट विषय माना जाता था, किन्तु इस स्वर्णयुगमें, अंग्रेजों द्वारा १८५८ में सर्वप्रथम आक्रान्त सोरई (शाहगढ़ राज) के ही किशोर वंशीधरजीने सानन्द लेकर प्रथम वैश्य-व्याकरणाचार्य देश और समाजको दिया था। प्रतिभा-परीक्षण
गरुवर गणेशवोंकी दृष्टि समाजको सर्वशास्त्रोंके विद्वान देना थी। फलतः व्याकरण लेनेपर बंशीधर २-८
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