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२ / व्यक्तित्व तथा कृतित्व : ३९
पन्ना, झांसी और टीकमगढ़ तक था। अतः गोल्हणदेको गोल्लाचार्य माननेकी सम्भावना या अनुमान संगत नहीं है।
हाँ, शास्त्रीजीके इस विचारसे हम सहमत हैं कि 'बुन्देलखण्डके जिस अञ्चलमें गोलापूर्व, गोलालारे और गोलभंगारके परिवार बसते आये हैं वह पूरा प्रदेश गोला राड् कहा जाता रहा है।' उन्होंने जिस प्रदेशको गोलाराड् कहा है सम्भवतः वह गोल्लदेश ही है और वह बुन्देलखण्ड ( उत्तर भारत ) का ही अञ्चल है, दक्षिणका नहीं।
सीकरसे प्रकाशित 'चारित्रधर्मप्रकाश' नामक ग्रन्थ में और 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा' भाग ४ के पृष्ठ ४४१ पर दी गई नन्दिसंघकी पट्टावलीमें बारहवें क्रमांकपर वि० सं० ३५८में संघके पट्रपर आरूढ़ हए गणनन्दिका नामोल्लेख हआ है । और 'चारित्रधर्मप्रकाश' में दी गयी, पदावलीके अनुसार पण्डित फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीने गुणनन्दिको दक्षिण देशस्थ भद्दलपुरका गोलापूर्व पट्टाधीश बताकर दक्षिगमें भी गोलापूर्वान्वयका आवास अनुमानित किया है । उनकी मान्यता है कि दक्षिणके जिस प्रदेशमें गोलापूर्वान्वयका पूर्वकालमें निवास रहा है वही गोल्लदेश है और गोलाराड्, गोलापूर्व तथा गोलश्रंगार तीनों अन्वयोंके वंशधर वहींसे आये हैं ।३८ इस सन्दर्भमें प्रथमतः विचारणीय है कि शास्त्रीजीने आचार्य गुणनन्दिको गोलापूर्व किस आधारपर बताया है ? क्योंकि 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा' भाग ४ के १० ४४१ में दी गयी नन्दिसंघकी पट्टावलीमें गणनन्दिके दक्षिणदेशस्थ भद्दिलपुरके पट्टाधीश होनेका उल्लेख तो किया गया है, किन्तु उनके गोलापूर्व होनेका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। शास्त्रीजीने यदि 'चारित्रधर्मप्रकाश' में कोई उल्लेख देखा हो, तो कहा नहीं जा सकता, क्योंकि यह ग्रन्थ अबतक लेखकको अप्राप्त है। डॉ० नेमिचन्द्र जैन शोधी-खोजी विद्वान थे। यदि आचार्योंकी जातिके उल्लेख उन्हें प्राप्त हुए होते, तो वे उसके उल्लेख अवश्य करते।
दुसरे, यदि गोलापूर्वान्वयका वि० सं० ३५८ में जन्म हो गया था तो इस अन्वयके प्राचीन प्रतिमालेख आदि भी मिलना चाहिए थे। यथार्थमें गोलापून्विय ही नहीं, अन्य कोई अन्वय भी इस समयमें नहीं थे । यही कारण है कि उस समयके उनके कोई लेख प्राप्त नहीं होते हैं ।
तीसरे, दक्षिणमें साक्ष्योंके अभावमें न गोल्लदेशकी सम्भावना की जा सकती है और न ही गोलापूर्व, गोलाराड़ और गोलभंगार अन्वयोंका उसे उद्भवस्थल स्वीकार किया जा सकता है। शास्त्रीजी इससे पूर्व इसी लेखके आरम्भमें बुन्देलखण्डके महोबा-भिण्ड-भदावर अञ्चलको गोल्लदेश या गोलाराड् सम्भावित कर आये हैं। किन्तु अब दक्षिणमें गोल्लदेश होनेकी सम्भावना कर रहे हैं, जो परस्परविरुद्ध हैं। च अभिलेखोंमें ही गोल्लदेशका उल्लेख किया गया है और उन्हीं में उसका शासक चन्देलनरेशचूडामणिको बताया गया है, जिसने बादको दिगम्बर मुनि-दीक्षा आ० वीरनन्दि 'विबुधेन्द्र' की परम्परामें ग्रहण की थी और वे गोल्लाचार्यके नामसे प्रथित हुए थे। यह चन्देलनरेशचूडामणि मदनवर्मदेव चन्देलनरेश था और जिसने गोल्लागढ़ वर्तमान गोलाकोटपर ई०११२९ से ११६३ तक शासन किया, जिसके अन्तर्गत शिवपुरी, टीकमगढ़, छतरपुर, झाँसी, मदनपुर आदिका क्षेत्र था। ध्यातव्य है कि चन्देल राजवंश उत्तरभारतमें ही रह दक्षिणमें नहीं। इतने विचार-विमर्श के बाद हम इसी निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि चन्देलवंशी राजा मदनवर्माके द्वारा शासित गोल्लागढ़ ही गोल्लारा या गोल्लप्रदेश है। इसी प्रदेशसे इसके शासनकाल में प्रतिष्ठित सर्वाधिक जैन मूर्तियाँ एवं जैन मन्दिर उपलब्ध हुए हैं । दक्षिण के किसी स्थानसे नहीं प्राप्त हुए।
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