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३८ : सरस्वती वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-प्रम्यं
किया जाता है । यहाँ 'पूर्व' पदसे पूर्व दिशा लिया जाना चाहिए । जो गोल्लागढ़की पूर्वदिशामें आचार-विचार सम्पन्न वैश्य समाज रहता था और जैनधर्मका पालक था वे गोलापूर्व कहे जाते थे, उनके समीप उत्तर दिशा में जो धार्मिक वैश्य समूह रहता था, उन्हें गोलालारे या गोलाराड् कहा जाता था और जो भूषणों के परिधान में अधिक रुचि रखते थे या उस देश ( गोल्लदेश) के भूषण माने जाते थे उन्हें गोल्लशृङ्गार या गोल्लसिंघारेके नामसे अभिहित किया जाता था । ये उस नगरके बार्ड या मुहल्ले थे । ये वर्ग व्यवसायकी दृष्टिसे शताब्दियों से दूसरे नगरों एवं गावोंमें आते-जाते रहते थे । जो व्यापारके लिए पूर्व दिशाकी ओर गये वे वहीं बस गये । पर उन्होंने मूलनिवासके नामको नहीं छोड़ा । वे उनके अन्वय, आम्नाय या जाति बन गई । जैसा कि मूर्तिलेखोंमें उल्लिखित है । जो परिवार गोल्लागढ़ और गोल्लदेशको छोड़कर बाहर चले गये, उनके, परिवारोंमें वृद्धि हुई तथा बादको वहाँसे और परिवार भी जाते रहे । उदाहरणार्थ खण्डेलवाल समाजके अनेक परिवार आसाम, बंगाल, मध्यप्रदेश आदिके नगरों-गाँवोंमें जा बसे हैं और सब खण्डेलवाल कहे जाते हैं । गोलापूर्व समाजके परिवारों में ऐसा ही एक परिवार बहोरीबन्द ( जबलपुर ) के शान्तिनाथ मन्दिर एवं उस विशाल, मूर्तिका निर्माता एवं प्रतिष्ठाकारक है, जिसने संवत् १००० या १०१० या १०७० में मंदिर तथा मूर्तिकी प्रतिष्ठा कराई थी । मूर्तिके पादपीठमें जो उत्कीर्ण लेख है उसमें 'गोल्लापूर्व आम्नाय' का स्पष्ट उल्लेख है । और इस आम्नायको 'उरुकृताम्नाये' पद देकर उन्नत (श्रेष्ठ) आम्नाय बतलाया है । वह परिवार था 'तर्कतार्किकचूड़ामणिश्रीमन्माधवनन्दि' से अनुग्रहीत ( उपकृत ) या उनका कृपापात्र साधु श्री सर्वधर और उसका पुत्र महाभोज, जो धर्म, दान और अध्ययनमें रत रहता था । वह लेख निम्नप्रकार है
'स्वस्ति संवत् १० फाल्गुन वदी ९ भौमे श्रीमद्गयकर्तदेव विजयराज्ये राष्ट्रकूटकुलोद्भव - महासामन्ताधिपतिश्रीमद्गोल्हणदेवस्य प्रवर्धमानस्य श्रीमद्गोल्लापूर्वाम्नाये वेल्लप्रभाटिकायामुरुकृताम्नाये तर्कतार्किकचूडामणिः श्रीमन्माधनन्दिनानुगृहीतः साधुः सर्वधरः तस्य पुत्रः घर्मदानाध्ययने रतः महाभोजः । तेनेदं कारितं रम्यं शान्तिनाथस्य मन्दिरम् ।"
-- पं० बलभद्र जैन, भारतके दि० जैन तीर्थं (म०प्र०), पृ० ३७ | यह परिवार गोल्लागढ़को छोड़कर यहाँ कब आया, कहा नहीं जा सकता । किन्तु यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इतनी विशाल ( १३ फुट ९ इंच अवगाहना तथा आसन सहित १५ फुट ६ इंच ऊँची) खड्गासन मूर्ति एवं उसके योग्य मन्दिरके निर्माणकी क्षमता और सम्पन्नता प्राप्त करनेके लिए तथा वहाँ स्थायी होने के लिए १००-१५० वर्षका समय तो लगा होगा । अतः यह परिवार मूल निवासको छोड़कर ८वीं, ९वीं शताब्दी में आया होगा ।
प्रतिष्ठाके समय कलचरिवंशके राजा गयकर्णदेवका राज्य और उनके प्रभाक शासक राष्ट्रकूटकुलोद्भव गोल्हणदेवका प्रभावी शासन था । गयकर्णदेवका राज्य अनुमानतः ई० १११५ से ११५३ तक माना गया हैं । 3 यही समय गोल्हणदेवका जानना चाहिए । प्रायः यही चन्देलनरेश मदनवम का इतिहाससम्मत शासनकाल ई० ११२९ से १९६३ तक माना जाता है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है ।
पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने गोल्हणदेवका जन्म गोल्लदेशमें होने या गोल्लदेशका राजा होनेकी सम्भावना की है और उन्हें तथा गोल्लाचार्यको एक होनेका अनुमान किया है 139 पर वे दोनों अलग-अलग व्यक्तित्व हैं । गोल्हणदेव राष्ट्रकूटवंशी थे और गोल्लाचार्य चन्देलवंशी थे । गोल्हणदेव कलचूरिनरेश गयकर्ण - देवके एक शासक थे, जिनका शासन बहोरीबंद ( जबलपुर ) क्षेत्रमें था और गोल्लाचार्य दीक्षाके पूर्व गोल्लदेशके नरेश तथा चन्देलनरेशचूड़ामणि थे, जिनका शासित क्षेत्र गोल्लदेश था, जो शिवपुरी, छतरपुर,
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