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________________ ६. सूत्रों के समान जैनेन्द्र और पाणिनीय व्याकरण की संज्ञाओं का भी तुलनात्मक अध्ययन हो सकता है। पूज्यपाद द्वारा प्रयुक्त कुछ संज्ञायें पाणिनि की संज्ञाओं की अपेक्षा बहुत स्वल्पाकार हैं। "अर्धमात्रालाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यते वैयाकरणा": की उक्ति जैनेन्द्र व्याकरण पर शतप्रतिशत चरितार्थ होती है। उदाहरणतया-पा० अव्यय जै०प्र०, अनुनासिक ड०, अव्ययीभाव = प्रादेश, धातु =धु, तद्धित=हृत, प्रत्यय = त्य, निष्ठा =त, प्रातिपादिक =मृत ह्रस्व-दीर्घ प्लुत -प्रदीप, समास = स, सवर्ण = स्व, संयोग =स्फ, लुक्,=उष्, गुण= एय, वृद्धि = ऐय्, इत्यादि । यद्यपि पूज्यपाद ने अपने व्याकरण में बहुत ही स्वल्पकाय संज्ञायें दी हैं, पर इनके कारण ग्रन्थ में दुरूहता और क्लिष्टता का समावेश हो गया है। बिना पाणिनीय संज्ञाओं को याद रखे इन्हें याद रख पाना बहुत ही कठिन है । एक और बात भी उल्लेखनीय है । पाणिनीय व्याकरण में समास, सवर्ण, संयोग, गुण, वृद्धि आदि कई संज्ञायें अन्वितार्थ हैं जिससे व्याकरण को समझने में अधिक सहायता मिलती है, इसके विपरीत जैनेन्द्र व्याकरण में यह सुविधा कम हो गई है । ७, संज्ञाओं में प्रयत्नपूर्वक अन्तर करने के साथ ही आचार्य पूज्यपाद ने कुछ संज्ञायें पाणिनीय व्याकरण से यथावत् ग्रहण कर ली है। उदात्त (जै० व्या० १,१,१३), अनुदात्त (१-१-१३,), स्वरित (१-१-१४), द्विः (१-१-२०), संख्या (१-१-३३), सर्वनाम (१-१-३५), पद (१-१-१०२), कारक (१-१-१०२), अपादान (१-१-१०६), सम्प्रदान (१-१-११०), करण (१-१-११३), अधिकरण (१-१-१५), कर्ता (१-१-२४), आदि संज्ञायें इसी कोटि में आती हैं । पाणिनि ने भी इसी प्रकार कुछ नतन संज्ञाओं की रचना की थी और अनेक संज्ञायें पूर्वाचार्यों से ही ग्रहण कर ली थीं। ८. जैनेन्द्र ने अपने व्याकरण में कहीं-कहीं सूक्ष्मता लाने के लिए तथा विलक्षणता दिखाने के लिए सरलता को बिल्कुल छोड़ दिया है। उदाहरणतया, “विभक्ती शब्द के प्रत्येक वर्ण को अलग करके स्वर के आगे तथा व्यंजन के आगे आ जोड़कर सातों विभक्तियों की संख्या निर्दिष्ट की है । जैसे-वा (प्रथमा), इप् (द्वितीया), भा (तृतीया), अप् (चतुर्थी), का (पंचमी), ता (षष्ठी), तथा ईप (सप्तमी)।' विद्वानों ने इसे शाब्दिक चमत्कार माना है। ६. जैनेन्द्र व्याकरण के रचयिता का दर्शन यह प्रतीत होता है कि परम्परित शब्दावलि को कम से कम छोड़ा जाये और जहां आवश्यक हो तथा सम्भव एवं उपयोगी हो वहां नवीनता लाई जाये। यही स्थिति व्याकरण के नियमों के लागू होने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में भी सत्य प्रतीत होती है। इसलिए जैनेन्द्र ने पाणिनि के परिभाषा सूत्रों को प्रकारान्तर से पुन: उपस्थित कर पाणिनि की व्याकरणिक प्रक्रिया को यथावत् ग्रहण कर लिया है। उदाहरणतया, निम्नलिखित परिभाषा सूत्र पाणिनि के परिभाषा सूत्रों के समान ही व्याकरणिक प्रक्रिया का स्वरूप उपस्थित करते हैं-स्थानेऽन्तरतमः (जै० व्या० १-१-४७), रन्तोण उः (१-१-४८), अन्तोऽलः (१-१-४६), डिन्त (१-१-५०), परस्यादेः (१-१-५१), शित्सवस्य (१-१-५२), टिदादिः (१-१-५३), किदन्तः (१-१-५४), परोऽचो मित् (१-१-५५), स्थानीवादेशोनल्विधौ (१-१-५६), परेच: पूर्वविधौ (१-१-५७), न पदान्तद्वित्ववरेयुखस्वानुस्वार दीर्घचविधौ (१-१-५८), द्वित्वेऽचि (१-१-५६), येनालि विधिस्तदन्ताधोः (१-१-६७), इत्यादि। १०. पाणिनि ने अष्टाध्यायी में महेश्वर सम्प्रदाय के चौदह-प्रत्याहार सूत्रों को यथावत् ग्रहण कर लिया था। उनकी सहायता से जिन प्रत्याहारों की रचना होती है उससे पाणिनीय तन्त्र में संक्षेप लाने में अत्यधिक सहायता मिली थी। जैनेन्द्र व्याकरण में इन प्रत्याहारों को यथावत् ग्रहण कर लिया गया है। इन प्रत्याहारों को पूज्यपाद ने इतनी स्वाभाविकता से अपने व्याकरण का अंग बना लिया है कि आचार्य ने चौदह प्रत्याहार सूत्रों को देने की भी आवश्यकता अनुभव नहीं की। अकालोऽच् प्रदीपः (जै० व्या १-१-११), इग्यणो जिः (१-१-४५), अदेड (१-१-१६), इकस्तौ (१-१-१७), सदृश सूत्रों में पाणिनीय तन्त्र के प्रत्याहारों का सहजता से प्रयोग कर लिया गया है। ११. व्याकरण में उत्सर्ग-अपवाद शैली की सहायता से विषयों के उपस्थापन में जैनेन्द्र व्याकरण में पाणिनीय अष्टाध्यायी में प्रतिपादित क्रम का यथावत् उपयोग किया गया है। अष्टाध्यायी के समान जैनेन्द्र व्याकरण में भी क्रमशः संज्ञा, परिभाषा, धात, लकार, कारक, निपात, समास, प्रत्यय, कृत् सम्बन्धी सूत्रों की रचना की गई है। यहां तक कि पाणिनि के समान जैनेन्द्र ने भी कारक विमर्श का प्रारम्भ अपादान के साथ प्रारम्भ किया है। १२. पाणिनि की अष्टाध्यायी के समान जनेन्द्र व्याकरण में भी अन्तिम दो अध्यायों के सूत्रों के लिए असिद्ध व्यवस्था करने के लिए पांचवें अध्याय के दूसरे पाद के अन्त में "पूर्वत्रासिद्धम्" सूत्र रखा गया है। १. उपाध्याय, बलदेव, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, पृ० ५७७. जन प्राच्य विचाएँ १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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