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________________ संस्कृत व्याकरण को जैन प्राचार्यों का योगदान -डॉ० सूर्यकान्त बाली भूमिका :-भारतीय विद्या के विविध पक्षों के वैज्ञानिक विवेचन में प्रारम्भ से ही दो धारायें सक्रिय एवं प्रभावशाली रही हैं-ब्राह्मणधारा और श्रमणधारा'। इनमें से ब्राह्मणधारा न्याय, सांख्य, वेदान्त आदि अनेक प्रकार के मतवादों तथा उन मतवादों द्वारा भारतीय विद्याओं पर डाले गये सूक्ष्म किन्तु अत्यन्त निर्णायक प्रभाव के रूप में परिलक्षित होती है। दूसरी ओर श्रमणधारा की अभिव्यक्ति मुख्यतः दो प्रकार के वादों से घनिष्ट रूप से जुड़ी हुई है-बौद्ध मत और जैन मत। इन दोनों मतों में से यदि जैन मत को श्रमणधारा का वास्तविक प्रतिनिधि एवं उत्तराधिकारी माना जाये तो इसमें कोई विसंगति नहीं मानी जानी चाहिए। इसके दो कारण हैं: एक कारण यह है कि प्राचीनता की दृष्टि से जैन परम्परा काल के उस खण्ड को स्पर्श करती है जिसे अद्यावधि उपलब्ध ऐतिहासिक खोजों के संदर्भ में इतिहासातीत कहा जा सकता है। जबकि बौद्ध परम्परा की शुरुआत काफी विलम्ब से हुई। दूसरा कारण यह है कि निरन्तरता की दष्टि से भी जैन परम्परा ने बिना किसी विराम के प्रत्येक काल में भारतीय विद्या को अपना निश्चित और निरन्तर योगदान किया है जो अभी तक जारी है जबकि एक विशेष काल के बाद बौद्ध परम्परा धार्मिक दृष्टि से प्रसारवादी और भारतीयता की दृष्टि से तटस्थतावादी हो गयी। इसलिए जहाँ जैन परम्परा भारतीय विद्याओं के संवर्धन में सम्पृक्तता और गुणवत्ता के साथ सहस्राब्दियों से लगी हुई है वहाँ बौद्ध परम्पर। इन दोनों विशेषताओं का दावा शायद नहीं कर पाती। ___ संस्कृत व्याकरण के विकास में जैन आचार्यों के योगदान का यदि अध्ययन किया जाय तो इसमें संपृक्तता और गुणवत्ता इन दोनों गुणों की निरन्तर प्राप्ति होती है । इस विशिष्ट योगदान का ऐतिहासिक अध्ययन करने से पूर्व कुछ प्रारम्भिक बातों का विमर्श कर लेने से हमारा अध्ययन अधिक प्रासंगिक और दिशा-निर्दिष्ट हो जायेगा । किसी भी विद्वान का किसी भी विद्या से जुड़ना दो दृष्टियों से हो सकता है। एक दृष्टि यह हो सकती है कि वह विद्वान उस विद्या के प्रति इसलिए आकृष्ट हो कि वह अपने विशिष्ट जीवन दर्शन के संदर्भ में उस विद्या का अध्ययन करना चाहता है। भारतीय काव्य शास्त्र में अनेक आचार्यों ने अपने विशिष्ट जीवन दर्शन के सन्दर्भ में इस शास्त्र का अध्ययन किया और उसे अपनी दार्शनिक दृष्टि के अनुसार परिवर्तित करना चाहा ।" अभिनवगुप्त, महिमभट्ट आदि के नाम इस दृष्टि से प्रख्यात नाम हैं। व्याकरण में भर्तृहरि द्वारा भाषाई चिन्तन को शब्द-ब्रह्मवाद की ओर मोड़ देना उनकी अद्वैत वेदान्त के प्रति निष्ठा के परिणामस्वरूप सम्भव हो पाया। व्याकरण में नागेश के अपने योगदान पर उसकी तन्त्रनिष्ठा का स्पष्ट प्रभाव माना जाता है। अश्वघोष द्वारा “सौन्दरनन्द" और "बद्ध चरित" के माध्यम से काव्य क्षेत्र में पदार्पण महात्मा बुद्ध के विचारों के प्रसार की एकान्त इच्छा के परिणाम स्वरूप ही किया गया प्रतीत होता है। दूसरी दृष्टि यह हो सकती है कि उस विद्वान का उस विशिष्ट विद्या के प्रति सम्मान शुद्ध रूप से वस्तुपरक विद्यानुराग १. तु० भारतीय दर्शन में प्रास्तिक, नास्तिक शब्दों पर विचार-डा० सूर्यकान्त, संस्कृत वाङ्मय का विवेचनात्मक इतिहास १६७२ पृ० ३८२. २. त० दासगुप्त, एस० एन० भारतीय दर्शन का इतिहास, भाग एक, १९७८, पृ० १७८, ३. त० मिश्र, उमेश भारतीय दर्शन १९६४,१०६८. ४. Majumdar, R.C. History and Culture of Indian People. Vol II. 1968 p. 390-91. ५ कृष्णकुमार, मलकार शास्त्र का इतिहास १६७५, पृ०३२-३४. ६ वही, पृ० १५७. ७. त्रिपाठी रामसरेश, संस्कृत व्याकरण दर्शन १९७२ पृ०४८, ५. शुक्ल कमलेश प्रमाद, परमलघुमंजूषा १९६१, संस्कृत भूमिका भाग प० १२, १३. है. कृष्ण चैतन्य, संस्कृत साहित्य का नवीन इतिहास १९६५ १०२६३-६४. जन प्राच्य विद्याएं For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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