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________________ 'धर्म' और 'अधर्म' की तात्त्विक स्थिति और है और आचारपरक और । जैन दर्शन के षद्रव्य विवेचन में 'धर्म-अधर्म' की, की गई व्याख्या इस तथ्य को पुष्ट कर देती है । जैन शास्त्रकारों के अनुसार 'धर्म' और 'अधर्म' दोनों से ही लोकालोक का विभाजन हुआ है । 'धर्म' गति रूप से और 'अधर्म' स्थिति रूप से इस सम्पूर्ण लोकालोक को धारण किये हुए है। जैसे जल मछली के तैरने में उपकारक है । जल के अभाव में मछली का तैरना सम्भव नहीं वैसे ही जीव और पुद्गलों की प्रायोगिक और स्वाभाविक गति तथा स्थिति का नियमन क्रमशः 'धर्म' और 'अधर्म' से ही होता है। धर्म सम्बन्धी इस जैन दृष्टिकोण के परिप्रेक्ष्य में हम महाभारतोक्त "धारणार्द्धम् इत्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः” के आशय को भी भली-भांति समझ सकते हैं। वर्तमान खण्ड में जैन दर्शनानुसारी 'धर्म' और 'अधर्म' की अवधारणाओं को आधुनिक विज्ञान के सन्दर्भ में व्याख्यायित करने वाले प्रौ० जी० आर० जैन के विचार इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।' जैन धर्म सष्टि विज्ञान को अनादि और अनन्त मानता है। आधुनिक विज्ञान के 'सतत उत्पत्ति' के सिद्धान्त से भी यह मिलताजुलता है । जैन दर्शन में धर्मास्तिकायों एवं अधर्मास्तिकायों के सद्भाव के कारण ही लोकालोक का विभाजन स्वीकार करना पड़ता है और जीव एवं पुद्गलों के नियमन का औचित्य भी तभी संभव है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन तत्त्व चिन्तन सत्यानुसंधान की वैज्ञानिक मान्यताओं पर अवलम्बित है । परवर्ती आचार्य परम्परा द्वारा सत्यानुसन्धान की इस प्रक्रिया को समृद्ध एवं चिन्तन-प्रधान बनाने की ओर विशेष प्रयत्न किए गए। जैन स्याद्वाद प्रणाली मतभेदों एवं पूर्वाग्रहों से ग्रस्त विरोधी ज्ञानों के मध्य सामंजस्य बैठाने की एक वैज्ञानिक विधि मानी जाएगी। मनुष्यों द्वारा अभिव्यक्त किए जाने वाले कथनात्मक ज्ञान वस्तुस्थिति के एक अंश को ही अभिव्यक्त कर पाते हैं परन्तु उस कथन का वक्ता सत्य के समय रूप को जान लेने का दम्भ करने लगता है और दूसरे विरोधी कथन को असत्य मान लेता है। ऐसी विरोधात्मक स्थिति में अनेकान्तवाद की विचार सरणि द्वारा सत्यानुसन्धान की एक स्वस्थ एवं उदार परम्परा का उदय हुआ जैनानुमोदित ज्ञान की अवधारणा और श्रु तज्ञान जैनधर्म मूलतः एक आध्यात्मिक धर्म है जिसमें दर्शन की प्रक्रिया द्वारा ज्ञानार्जन की शक्ति के विकास को वैज्ञानिक ढंग से निरूपित किया गया है । 'दर्शन' से आत्मा का सर्वप्रथम बोध होता है। तदनन्तर उससे उत्पन्न 'ज्ञान' बाह्य पदार्थों का अवबोधन कराता है। 'दर्शन' और 'ज्ञान' दोनों परस्पर कारण-कार्य सम्बन्ध से व्यवहृत होते हैं । अर्थात् जब तक आत्मावधान नहीं होगा तब तक बाह्य पदार्थों का इन्द्रिय सन्निकर्ष होने पर भी बोध शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती । आत्मा के स्तर पर होने वाला बोध 'दर्शन' होता है जिसे आध्यात्मिक कहते हैं और बाह्य पदार्थों के स्तर पर होने वाला बोध 'ज्ञान' कहलाता है जिसे 'लौकिक' माना जाता है। आत्मा के स्तर पर होने वाले ज्ञान की भी उत्तरोत्तर चार स्थितियां जैन दर्शन में स्वीकार की गई हैं चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । प्रथम दो सामान्य स्तर के दर्शन हैं । 'अवधिदर्शन' में यद्यपि इन्द्रियातीत और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान संभव है परन्तु वह भी कुछ सीमाओं से आबद्ध होने के कारण पूर्ण-दर्शन नहीं बन पाता । 'केवल दर्शन' ज्ञान की वह सर्वोत्कृष्ट अवस्थिति है जिसमें आत्मावधान के द्वारा समस्त ज्ञय को ग्रहण करने की शक्ति जागृत होती है । जैनदर्शन में बाह्य पदार्थों के ज्ञान की अपेक्षा से 'ज्ञान' के पांच भेद माने गए हैं – 'मतिज्ञान', 'श्रुतज्ञान', 'अवधिज्ञान', 'मनः पर्यय ज्ञान' और 'केवल ज्ञान'। इन पांचों ज्ञानों में 'केवल ज्ञान' सर्वोच्च ज्ञान है जिसके द्वारा केवल ज्ञानी विश्व के समस्त रूपी और अरूपी पदार्थों और उनकी त्रिकालवर्ती पर्यायों को युगपत् रूप से जान लेता है। अनुयोग-चतुष्टय एवं जैन प्राच्य विद्याएँ जैन प्राच्य विद्याओं के संदर्भ में श्रुतज्ञान की सारस्वत धारा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग तथा द्रव्यानुयोग नामक अनुयोग-चतुष्टय के रूप में भी प्रवाहित हुई है। विद्वानों के अनुसार 'षट्खण्डागम' की परम्परा से इसका सूत्रपात हुआ है । यद्यपि इन चारों अनुयोगों में 'द्रव्यानुयोग' को ही प्रधानता दी जाती है तथापि अन्य तीन अनुयोग भी 'सम्यग्ज्ञान' के सूत्र से संग्रथित हैं अतएव एक १. तु० "धर्मद्रव्ये गतिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमेते त्रयो गुणाः । अधर्मद्रव्ये स्थितिहेतुत्वममूर्तत्वमचेतनत्वमिति ।" आलाप पद्धति, २ २. तु० राजवात्तिक, ५.१७.४६०.१४ ३. प्रो०जी० आर० जैन, जैन जगत-उत्पत्ति और आधुनिक विज्ञान, वर्तमान जैन प्राच्य विद्या खण्ड, पृ० १२-१३ ४. तु. "मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानम् ।" तत्त्वार्थसूत्र १.६ ५. तु० "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ।" तत्त्वार्थसूत्र, १.२६ जैन प्राच्य विद्याएँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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