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पतंजलि के कहने का अभिप्राय यह है कि वैदिक परम्परा के विद्वान् पण्डित भी कभी-कभी बोलचाल में लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग कर लेते थे। इसे तो वे क्षम्य मान लेते हैं, परन्तु, इस पहलू पर जोर देते है कि यज्ञ में अशुद्ध भाषा कदापि व्यवहृत नहीं होनी चाहिए। वैसा होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। उनके कथन से यह अभिव्यंजित होता है कि इस बात की बड़ी चिन्ता व्याप्त हो गयी थी कि लोक-भाषाओं का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ प्रवाह याज्ञिक कर्म-विधि तक कहीं न पहुँच जाये। वे यहां तक कहते हैं : “याज्ञिकों के शब्द हैं कि यदि आहिताग्नि (याज्ञिक अग्न्याधान किये हुए व्यक्ति) द्वारा अपशब्द का प्रयोग हो जाये, तो उसे उसके प्रायश्चित-स्वरूप सारस्वती-दृष्टि-सारस्वत (सरस्वती देवता को उद्दिष्ट कर) यज्ञ करना चाहिए।"
एक स्थान पर पतंजलि लिखते हैं : "..... जिन प्रतिपादकों का विधि-वाक्यों में ग्रहण नहीं किया गया है, उनका भी स्वर तथा वर्णानुपूर्वी के ज्ञान के लिए उपदेश-संग्रह इष्ट है, ताकि शश के स्थान पर षष, पलाश के स्थान पर पलाष और मञ्चक के स्थान पर मञ्जक का प्रयोग न होने लगे।"
पतंजलि के समक्ष एक प्रश्न और आता है। वह उन शब्दों के सम्बन्ध में है, जो उनके समय या उनसे पहले से ही संस्कृत में प्रयोग में नहीं आ रहे थे, यद्यपि वे थे संस्कृत के ही। ऊप, तेर; चक्र तथा पेच ; इन चार शब्दों को उन्होंने उदाहरण के रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने ऊष के स्थान पर उषिताः, तेर के स्थान पर तोर्णाः, चक्र के स्थान पर कृतवन्तः तथा पेच के स्थान पर पक्ववन्तः के रूप में जो प्रयोग प्रचलित थे, उनकी भी चर्चा की है।
इन शब्दों के अप्रयोग का परिहार करते हुए वे पुनः लिखते हैं : "हो सकता है, वे शब्द जिन्हें अप्रयुक्त कहा जाता है, अन्य देशों -स्थानों में प्रयुक्त होते हों, हमें प्रयुक्त होते नहीं मिलते हों। उन्हे प्राप्त करने का यत्न कीजिए । शब्दों के प्रयोग का क्षेत्र बड़ा विशाल है। यह पृथ्वी सात द्वीपों और तीन लोकों में विभक्त है। चार वेद हैं। उनके छह अंग हैं । उसके रहस्य या तत्त्वबोधक इतर ग्रन्थ हैं । यजुर्वेद की १०१ शाखाएं हैं, जो परस्पर भिन्न हैं। सामवेद की एक हजार मार्ग-परम्पराएं हैं। ऋग्वेदियों के आम्नायपरम्परा-क्रम इक्कीस प्रकार के हैं। अथर्ववेद नौ रूपों में विभक्त है। वाकोवाक्य (प्रश्नोतरात्मक ग्रन्थ) इतिहास, पुराण, आयुवद इत्यादि अनेक शास्त्र हैं, जो शब्दों के प्रयोग के विषय हैं। शब्दों के प्रयोग के इतने विशाल विषय को सुने बिना इस प्रकार कहना कि अमुक शब्द अप्रयुक्त हैं, केवल दु:साहस है।"
पतंजलि के उपयुक्त कथन में मुख्यतः दो बातें विशेष रूप से प्रतीत होती हैं। एक यह है-संस्कृत के कतिपय शब्द लोकभाषाओं के ढांचे में ढलते जा रहे थे । उससे उनका व्याकरण-शुद्ध रूप अक्षुण्ण कैसे रह सकता? लोक-भाषाओं के ढांचे में डला हआकिंचित् परिवर्तित या सरलीकृत रूप संस्कृत में प्रयुक्त न होने लगे, इस पर वे बल देते हैं; क्योंकि वैसा होने पर संस्कृत की शुद्धता स्थिर नहीं रह सकती थी। शश-षष, पलाश-पलाष, मञ्चक-मजक, जो उल्लिखित किये गये हैं, वे निश्चय ही इसके द्योतक हैं।
दूसरी बात यह है कि संस्कृत के कुछ शब्द लोक-भाषाओं में इतने घुल-मिल गये होंगे कि उनमें उनका प्रयोग सहज हो गया । सामान्यत: वे लोक-भाषा के ही शब्द समझे जाने लगे हों। संस्कृत के क्षेत्र पर इसकी प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई । वहां उनका प्रयोग बन्द हो गया। हो सकता है, आपाततः संस्कृतज्ञों द्वारा उन्हें लोक-भाषा के ही शब्द मान लिए गये हों या जानबूझ कर उनसे दुराव की स्थिति उत्पन्न कर ली गयी हो।
पतंजलि के मस्तिष्क पर सम्भवत: इन बातों का असर रहा हो; इसलिए वे इन शब्दों की अप्रयुक्तता के कारण होने वाली भ्रान्ति का प्रतिकार करने के लिए प्रयत्नशील प्रतीत होते हैं । शुद्ध वाक्-ज्ञान, शुद्ध वाक्-प्रयोग, शुद्ध वाक-व्यवहार को अक्षुण्ण
१. याशिका: पठन्ति प्राहिताग्निरपशब्दं प्रयुज्य प्रायश्चितीयाँ सारस्वतीमिष्टि निर्वपेत । महाभाष्य, पृ०८ २. ... यानि तागृहणानि प्रातिपदिकानि, एतेषामपि स्वरवर्णानुपूर्वी ज्ञानार्थ उपदेशः कर्तव्य: । शश: षष इति मा भूत् । पलाशः पलाष इति मा भूत ___ मञ्चको मञ्जक इति मा भूत् ।
-वही, पृ० ४८ अप्रयोगः खल्वप्येषां शब्दाना न्याय्यः। कुत: प्रयोगान्यत्वात् । यदेषां शब्दानामथऽ न्याञ्छब्दान्प्रयुजते। यद्य या ऊषेत्यस्य शब्दस्याय क्व यूयमुषिता:, तेरेत्यस्यायें क्व यूयं तीर्णाः, चक्रेत्यस्यार्थे क्व यूयं कृतवन्त:, पेचेत्यस्यार्थे क्व यूयं पक्ववन्त इति ।
-महाभाष्य; प्रथम माह निक, पृ० ३१ सर्वे खल्वप्येते शध्दा देशान्तरेष प्रयुज्यन्ते । न चैवोपलभ्यन्ते । उपलब्धो यत्नः क्रियताम् । महान्छब्दस्य प्रयोगविषयः । सप्तद्वीपा वसुमती, बयो नोकाः, चत्वारो वेदा: सांगा: सरहस्या:, बहुधा भिन्ना एकादशमध्वर्यु शाखा:, सहनवा सामवेदः, एकविंशतिधा बाह वृच्च, नवधायर्वणो वेदः, वाकोवाक्यम्, इतिहास:, पुराणम् वैद्य कमित्येतावाञ्छब्दस्य प्रयोगविषयः । एतावन्तं शब्दस्य प्रयोगविषयमननुनिशम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमानमेव ।
-वही, पृ० ३२-३३
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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