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________________ भाषा को लेकर पिछली शताब्दियों तक धर्म के क्षेत्र में मानव की कितनी अधिक रूढ़ धारणाए' बनी रहीं, मिस्र की एक बीना से यह विशेष स्पष्ट होता है। टेलीफोन का आविष्कार हुआ। संसार के सभी प्रमुख देशों में उसकी लाइनें बिछाई जाने लगीं। मिस्र में भी टेलीफोन लगने की चर्चा आई। मिस्रवासिय ने जब यह जाना कि सैकड़ों मील की दूरी से कही हई बात उन्हीं शब्दों में सनी जसकेगी तो उनको बड़ा आश्चर्य हुआ। मिस्र के मौलवियों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क था कि इन्सान की आवाज इतनी दर नहीं पहंच सकती। यदि पहुंचेगी, तो वह इन्सान की आवाज नहीं, अपितु शैतान की आवाज होगी; अर्थात् इन्सान की बोली गई बात को शैतान पकड़ेगा, आगे तक पहुंचायेगा। जन-साधारण की मौलवियों के प्रति अटूट श्रद्धा थी। उन्होंने मौलवियों के कथन का समर्थन करते हुए कहा कि वे मन की आवाज नहीं सनेंगे । उनके यहाँ टेलोफोन की लाइनें न बिछाई जायें । प्रशासन स्तब्ध था, कैसे करें ? बहत समझाया गया. पर नहीं माने । अन्त में वे एक शर्त पर मानने को सहर्ष प्रस्तुत हुए। उन्होंने कहा, कुरान की आयतें खुदा की कही हुई हैं । मनुष्य उनको बोल सकता है, शैतान उनका उच्चारण नहीं कर सकता । यदि दूरवर्ती मनुष्य द्वारा बोली हुई कुरान की आयतें टेलीफोन से सही रूप में सुनी जा सके, तो उन्हें विश्वास होगा कि वह शैतान की आवाज नहीं है, इन्सान की है। ऐसा ही किया गया। तदन्तर मिस्र वासियों ने टेलीफोन लगाना स्वीकार किया ।। प्लेटो जैसे दार्शनिक और तत्त्व-वेत्ता का भी इस सम्बन्ध में यह अभिमत था कि जगत् में सभी वस्तुओं के जो नाम हैं वे प्रकृति-दत्त हैं। सारांश यह है कि दूसरे रूप में सही, प्लेटो ने भी भाषा को देवी या प्राकृतिक देन माना, क्योंकि वस्तु और क्रिया के नामों की समन्वित संकलना ही भाषा है। भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में विभिन्न आस्थावादियों के मन्तव्यों से जिज्ञासा और अनुसन्धित्सा-प्रधान लोगों को सन्तोष नहीं हआ। इस पर अनेक शंकाएं उत्पन्न हुई । सबका दावा अपनी-अपनी भाषा की प्राचीनता और ईश्वर या प्रकृति की देन बनाने का है। यदि भाषा ईश्वर-दत्त या जन्मजात है, तो देश-काल के आधार पर थोड़ा-बहुत भेद हो सकता है, पर, संसार की भाषाओं में परस्पर जो अत्यन्त भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह क्यों है ? इस प्रकार के अन्य प्रश्न थे, जिनका समाधान नहीं हो पा रहा था। मानव को मूल भाषा : कतिपय प्रयोग अतिविश्वासी जन-समुदाय के मन पर विशेष प्रभाव पड़ा । वे मानने लगे, शिशु जन्म के साथ ही एक भाषा को लेकर आता है। पर, जिस प्रकार के देश, वातावरण, परिवार एवं समाज में वह बड़ा होता है, अनवरत सम्पर्क, सान्निध्य और साहचर्य के कारण वहीं की भाषा को शनै:-शनैः ग्रहण करता जाता है। फलत: उसका संस्कार परिवर्तित हो जाता है और वह अपने देश में प्रचलित भाषा को सहज रूप में बोलने लगता है। स्वभावतः प्राप्त भाषा उसके लिए अव्यक्त या विस्मत हो जाती है और वह जो कृत्रिम भाषा अपना लेता है, वह उसके लिए स्वाभाविक हो जाती है। समय-समय पर उपयुक्त तथ्य के परीक्षण के लिए कुछ प्रयोग किये गये। ई० पू० पांचवीं शती के प्रसिद्ध लेखक हेरोडोटोस के अनुसार मिस्र के राजा संमिटिकोस (Psammitochos) ने इस सन्दर्भ में एक प्रयोग किया। जहां तक इतिहास का साक्ष्य है, भाषा के उद्भव के सम्बन्ध में किये गये प्रयोगों में वह पहला प्रयोग था। स्वाभाविक भाषा या आदि भाषा के रहस्योद्घाटन के साथ-साथ इमसे प्राचीन या आदिम मानव-जाति का भेद खुलने की भी आशा थी। इस प्रकार सोचा गया कि बच्चे स्वाभाविक रूप में जो भाषा बोलने लगेंगे, वही विश्व की सबसे प्राचीन मूल भाषा सिद्ध होगी और जिन लोगों की, जिस जाति के लोगों की वह भाषा होगी, निश्चित ही वह विश्व की आदिम जाति मानी जायेगी। परीक्षण इस प्रकार हुआ । दो नवजात बच्चों को लिया गया। उनके पास आने-जाने वालों को कठोर आदेश था कि वहां वे कुछ न बोले । उन शिशुओं के परिचारक को भी कड़ा आदेश था कि वह उनके खाने-पीने की व्यवस्था और देखभाल करता रहे, पर, मुंह से कभी एक शब्द भी न बोले । क्रम चलता रहा । बच्चे बड़े होते गये । उन्हें कुछ भी बोलना नहीं आया। उनके मुंह से केवल एक शब्द सुना गया-'वेकोस' (Bekos) । यह शब्द फ्रीजियन भाषा का है। इसका अर्थ रोटी होता है । उन बच्चों के खान-पान की व्यवस्था करने वाला नौकर फिजियन था ऐसा माना गया कि कभी रोटी देते समय भूल से नौकर के मुंह से 'वेकोस' शब्द निकल गया हो, जिसको बच्चों ने पकड़ लिया हो । बारहवीं शताब्दी में इसी प्रकार का प्रयोग फ्रेडरिक द्वितीय ने किया, पर, अपेक्षित परिणाम नही निकला । उसके अनन्तर पन्द्रहवीं शताब्दी में स्काटलैंड के राजा जेम्स चतुर्थ ने भी इसी तरह का प्रयोग किया, पर, कुछ सिद्ध नहीं हो पाया। भारत में सोलहवीं १४० आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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