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जो उनके प्रमुख शिष्यों-गणधरों द्वारा किया गया था। उनके अनुसार अर्द्ध-मागधी विश्व की आदि भाषा है। सूत्रकृतांग नियुक्ति पर रचित चूणि में उल्खेख है : "प्राकृत भाषा (अर्द्ध-मागधी) जीव के स्वाभाविक गुणों से निष्पन्न है।' यही (अर्द्ध-मागधी) देवताओं की भाषा है, ऐसा जैनों का विश्वास है। कहा गया है : 'अर्द्ध-मागधी आर्ष एवं सिद्ध वचन है, देवताओं की भाषा है।"
तीर्थकर जब धर्म-देशना करते हैं, उनके समवसरण (विराट् श्रोत-परिषद) में मनुष्यों देवताओं आदि के अतिरिक्त पशुपक्षियों के उपस्थित रहने का भी उल्लेख है। तीर्थकरों को देशना अर्द्धमागधी मे होती है। उस (तीर्थकर भाषित-वाणी) का यह अतिशय या वैशिष्ट्य होता है कि श्रोत-वन्द द्वारा ध्वन्यात्मक रूप में गृहीत होते ही वह उनकी अपनी भाषा के रूप में परिणत हो जाती है अर्थात् वे उसे अपनी भाषा में समझते हैं। उपस्थित तिर्यंच (पशु-पक्षी-गण) भी उस देशना को इसी (अपनी भाषा में परिणत) रूप में श्रवण करते हैं। एक प्रकार से यह भाषा केवल मानव-समुदाय तथा देव-वृन्द तक ही सीमित नहीं है, पशु-पक्षियों तक व्याप्त है।
प्राकृत-विद्वानों का अभिमत :-जैन शास्त्रकारों या व्याख्याकारों ने ही नहीं, अपितु कतिपय उत्तरवर्ती जैन-अजैन प्राकृत विद्वानों ने भी इस सम्बन्ध में इसी प्रकार के उद्गार प्रकट किये हैं। ग्यारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध अलकार शास्त्री नभि साधु ने प्राकृत की व्याख्या करते हुए लिखा है : "प्राकृत व्याकरण आदि के संस्कार से निरपेक्ष समस्त जगत् के प्राणियों का सहज वचन-व्यापार भाषा है । 'प्राकृत का अर्थ प्राक् कृत - पूर्व कृत अथवा आदि सष्ट भाषा है । वह बालकों, महिलाओं आदि के लिए सहजतः वोधगम्य है और सब भाषाओं का मूल है।"
भोज-रचित सरस्वती कण्ठाभरण के व्याख्याकार आजड़ ने भी इसी प्रकार का उल्लेख किया है। उनके अनुसार प्राकृत समस्त जगत् के प्राणियों का स्वाभाविक वचन-व्यापार है, शब्दशास्त्रकृत विशेष संस्कारयुक्त है तथा बच्चों, ग्वालों व नारियों द्वारा सहज ही प्रयोग में लेने योग्य है । सभी भाषाओं का मूल कारण होने से वह उनकी प्रकृति है अर्थात् उन भाषाओं का यह (उसी प्रकार) मूल कारण है, जिस प्रकार प्रकृति जगत् का मूल कारण है।
प्रसिद्ध कवि वाक्पति ने ग उडवहो काव्य में प्राकृत की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा है : “जैसे जल-नदियां समुद्र में मिलती हैं और उसी से (वाष्प रूप में) निकलती हैं, उसी तरह भाषाएं प्राकृत में ही प्रवेश पाती हैं और उसी से निकलती हैं।"५
रोमन कैथोलिक मान्यता :-ईसाई धर्म में भी भाषा के विषय में इसी प्रकार की मान्यता है । इस धर्म के दो सम्प्रदाय हैंरोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेण्ट । रोमन कैथोलिक प्राचीन हैं। उनका सर्वमान्य ग्रन्थ ओल्ड टेस्टामेंट है, जो हिब्र में लिखा गया है। उनके अनुसार परमात्मा ने सबसे पहले पूर्ण विकसित भाषा के रूप में इसे आदम और हव्वा को प्रदान किया। उनका विश्वास है कि विश्व की यह आदि भाषा है । सभी भाषाओं का यह उद्गम-स्रोत है । स्वर्ग के देव-गण इसी भाषा में सम्भाषण करते हैं ।
हिब्र से सभी भाषाओं का उदगम सिद्ध करने के लिए ग्रीक, लैटिन आदि पाश्चात्य भाषाओं के ऐसे अनेक शब्द संकलित किये गये, जो उससे मिलते-जुलते थे। इस प्रकार यूरोपीय भाषाओं के अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति हिब्र से सिद्ध किये जाने के भी प्रयास हए। इसके लिये ध्वनि-साम्य, अर्थ-साम्य आदि को आधार बनाया गया । जो भी हो, तुलनात्मक अध्ययन का बीज रूप में एक कम तो चला, जो उत्तरवर्ती भाषा-शास्त्रीय व्यापक अध्ययन के लिए किसी रूप में सही, उत्साहप्रद था ।
इस्लाम का अभिमत :-आदि भाषा के सम्बन्ध में इस्लाम का मन्तव्य भी उपयुक्त परम्पराओं से मिलता-जलता है। इस्लाम के अनुयायियों के अनुसार कुरान, जो अरबी भाषा में है, खुदा का कलाम है।
मिस्र में भी प्राचीन काल से वहां के निवासियों का अपनी भाषा के सम्बन्ध में इसी प्रकार का विचार था। इस्लाम का प्रचार होने के अनन्तर मिस्र वासी अरबी को ईश्वर-दत्त आदि भाषा मानने लगे।
१. जीवस्स साभावियगणे हिं ते पागतभासाए।
मारिस वयणो सिद्धं देवानं पद्धमागहा वाणी सकलगज्जननां व्याकरणादिभिरनाहितसंस्कार: सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तन्न भवं संबव प्राकृतम् ।.....'प्राक कृतं प्राकृत बालमहिलादिसबोध सकल भाषानिबन्धनभूतं वचनम च्यते । सकलबालगोपालांगनाहृदयसंचारी निखिलजगज्जन्तूनां शब्दशास्त्रीकतविशेषसंस्कार : सहजो वचनव्यापार: समस्तेतरभाषा विशेषाणां मूल कारणत्वात प्रकृति ।
रिवप्रक ति: तव भवा सैव वा प्रक ति:। ५. सयलामो इयं वायाविसंति एत्तो य गति वायाभो।
एंति समझ चिय णेति सायराम्रो च्विय जलाई॥३॥
जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक सन्दर्भ
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