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________________ स्वर-तन्त्री तथा ध्वनि को व्यक्त रूप में प्रस्फुटित करने वाले वाििन्द्रय के मुख-विवर, नासिका-विवर, तालु, कण्ठ, ओष्ठ, दन्त, मूर्दा, जिह्वा आदि अवयव, उनसे ध्वनि उत्पन्न होने की प्रक्रिया, ध्वनि-तरंग, श्रोत्रेन्द्रिय से संस्पर्शन या संघर्षण, श्रोता द्वारा स्पष्ट शब्द के रूप में ग्रहण या श्रवण आदि के साथ-साथ ध्वनि-परिवर्तन, ध्वनि-विकास, उसके कारण तथा दिशाएं आदि विषयों का समावेश है। रूप-विज्ञान (Morphology) | ___शब्द का वह आकार, जो वाक्य में प्रयुक्त किये जाने योग्य होता है, रूप कहा जाता है। 'पद' का भी उसी के लिए प्रयोग होता है। सुप्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने 'सुप्तिङन्तं पदम्' कहा है । अर्थात् शब्दों के अन्त में सु, औ, जस आदि तथा ति, अस्, अन्ति आदि विभक्तियों के लगने पर जो विशेष्य, विशेषण, सर्वनाम तथा क्रियाओं के रूप निष्पन्न होते हैं, वे पद हैं। न्यायसूत्र के रचयिता गौतम ने 'ते विभक्त्यन्ताः पदम्' कहा है । विभक्ति-शून्य शब्द (प्रातिपादिक) और धातुओं का यथावस्थित रूप में प्रयोग नहीं होता । विभिन्न सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए उनके साथ भिन्न-भिन्न विभक्तियाँ जोड़ी जाती हैं। विभक्ति-युक्त प्रातिपादिक या धातु प्रयोग-योग्य होते हैं । संस्कृत के सुप्रसिद्ध काव्य-तत्त्व-वेत्ता कविराज विश्वनाथ ने पद की व्याख्या करते हुए लिखा है : ' वे वर्ण या वर्ण-समुचय, जो प्रयोग के योग्य हैं तथा अनन्वित रूप में किसी एक अर्थ के बोधक है, पद कहे जाते हैं।" रूप-विज्ञान में इस प्रकार के नाम व आख्यात (क्रिया) पदों (रूपों) के विश्लेषण, विकास तथा अव्यय, उपसर्ग, प्रत्यय आदि का तुलनात्मक विवेचन होता है। अर्थ-विज्ञान (semantics) शब्द और अर्थ का अविच्छिन्न सम्बन्ध है । अर्थ-शून्य शब्द का भाषा के लिए कोई महत्त्व नहीं होता । शब्द बाह्य कलेवर है, अर्थ उसकी आत्मा है । केवल कलेवर की चर्चा से साध्य नहीं सधता। उसके साथ-साथ उसकी आत्मा का विवेचन भी अत्यन्त आवश्यक होता है। शब्दों के साथ संश्लिष्ट अर्थ का एक लम्बा इतिहास है। किन-किन स्थितियों ओर हेतु ओं से किन-किन शब्दों का किन-किन अर्थों से कब, कैसे सम्बन्ध जुड़ जाता है ; इसका अन्वेषण एवं विश्लेषण करते हैं, तो बड़ा आश्चर्य होता है । वैयाकरणों द्वारा प्रतिपादित 'शब्दाः कामदुधाः' इसी तथ्य पर प्रकाश डालता है। इसका अभिप्राय यह था कि शब्द कामधेनु की तरह हैं । अनेकानेक अर्थ देकर भोक्ता या प्रयोक्ता को परितुष्ट करने वाले हैं। कहने का प्रकार या क्रम भिन्न हो सकता है, पर, मूल रूप में तथ्य वही है, जो ऊपर कहा गया है। उदाहरणार्थ, जुगुप्स शब्द को लें। वर्तमान में इसका अर्थ घृणा माना जाता है। यदि इस शब्द के इतिहास की प्राचीन पर्ते उघाड़ें, तो ज्ञात होगा कि किसी समय इस शब्द का अर्थ 'रक्षा करने की इच्छा' (गोप्तुमिच्छा जुगुप्सा) था। समय बीता। इस अर्थ में कुछ परिवर्तन आया । प्रयोक्ताओं ने सोचा होगा, जिसकी हम रक्षा करना चाहते हैं, वह तो छिपा कर रखने योग्य होता है। अत: 'जगुप्सा' का अर्थ गोपन (छिपाना) हो गया। मनुष्य सतत मननशील प्राणी है । उसके चिन्तन एवं मनन के साथ नये-नये मोड़ आते रहते हैं । उक्त अर्थ में फिर एक नया मोड़ आया। सम्भवतः सोचा गया हो, हम छिपाते तो जघन्य वस्तु को हैं, अच्छी वस्तएं तो छिपाने की होती नहीं। इस चिन्तन के निष्कर्ष के रूप में जगप्सा का अर्थ 'गोपन' से परिवर्तित होकर 'घृणा' हो गया। वास्तव में शब्द स्रष्टा एवं उसका प्रयोक्ता मानव है । प्रयोग की भिन्न-भिन्न कोटियों का मानव की मन: स्थितियों से सम्बन्ध है। शब्द और अर्थ के सम्बन्ध आदि पर विचार, विवेचन और विश्लेषण इस विभाग के अन्तर्गत आता है। वर्तमान के कछ भाषा-वैज्ञानिक इसको भाषा-विज्ञान का विषय नहीं मानते। वे इसे दर्शन-शास्त्र से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं । प्राचीन काल के कुछ भारतीय दार्शनिकों ने भी प्रसंगवश शब्द और अर्थ के सम्बन्ध की चर्चा की है। पर, जहां स्वतंत्र रूप से भाषा शास्त्र के सांगोपांग विश्लेषण का प्रसंग हो, वहां इसे अनिवार्यतः उसी को लेना होगा। उसके बिना किसी भी भाषा का वैज्ञानिक दृष्टि से परिशीलन अपूर्ण रहेगा । अर्थ-विज्ञान के अन्तर्गत वर्णनात्मक, समीक्षात्मक, तुलनात्क तथा इतिहासात्मक ; सभी दृष्टियों से अर्थ का अध्ययन करना अपेक्षित होता है। अर्थ-परिवर्तन, अर्थ-विकास, अर्थ-हास तथा अर्थ-उत्कर्ष आदि अनेक पहलू इसमें सहज ही आ जाते हैं। वाक्य-विज्ञान (syntax) भाषा का प्रयोजन अपने भावों की अभिव्यंजना तथा दूसरे के भावों का यथावत् रूप में ग्रहण करना है। दूसरे शब्दों में इसे (भाषा को) विचार-विनियम का माध्यम कहा जा सकता है। ध्वनि, शब्द, पद ; ये सभी भाषा के आधार हैं। पर, भाषा जब वाक्य की भूमिका के योग्य होती है, तब उसका कलेवर वाक्यों से निष्पन्न होता है। पद वाक्य में प्रयुक्त होकर ही अभीप्सित अर्थ १. वर्णाः पदं प्रयोगाहान्वितेकार्थबोधकाः। -साहित्यदर्पण; २.२ १३० आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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