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________________ वाणी जो बोली ही नहीं गयी किन्तु सुनी जा सकती है। इसके लिए पुरानी भाषा में एक शब्द है-दिव्यध्वनि। यानी किसी बुद्ध पुरुष के भीतर से उठी और किसी में सम्प्रेषित हो गयी। ऐसा तभी सम्भव है जब कोई ध्यानस्थ बैठकर निर्विचार की स्थिति को पहुंच पाये। उसके मन पर विचार की कोई भी रेखा बनती मिलती न हो, कोई शब्द कोई भाव, कोई तरंग न हो पूर्ण मौन होकर सुन सके। केवल सुननेवाला यानी घोता होने में और भीतर-बाहर पूर्ण मौन सुननेवाला ज्ञानी धावक होने में जो बड़ा भारी अन्तर है उसे स्पष्ट करने के लिए महावीर एक बड़ा कीमती शब्द प्रयोग में लाये – सम्यक् श्रवण | श्रोता केवल सुन पाता है, सम्यक् श्रवण को प्राप्त नहीं हो पाता । श्रावक ही सम्यक् श्रवण को प्राप्त हो सकता है। साधना जगत् में कोई व्यक्ति श्रोता से श्रावक कैसे हो सकेगा इसके लिए महावीर ने जो पद्धति प्रस्तुत की उसकी सबसे प्रथम सीढ़ी है-प्रतिक्रमण । यह प्रतिक्रमण शब्द बड़ा युक्तियुक्त लाये हैं वे । 'आक्रमण' शब्द सर्वविदित है । प्रतिक्रमण ठीक उसका उल्टा है । हमारी चेतना, किसी भी जड़ या चेतन से, जहां जहां भी अपना एक लगाव रखे है, जिस-जिसके भी आसपास अटकी हुई है, जिन-जिनसे भी सम्बन्धित है, जुड़ी है, वह सब सूक्ष्म रूप से एक प्रकार का आक्रमण ही है । प्रतिक्रमण का मतलब है उन तमाम जगहों, वस्तुओं, केन्द्रों या बिन्दुओं से चेतना को वापस लौटा लेना। पूरी तरह से समेट लेना । उस सारे फैलाव, बल्कि जाल, से वापस ले आना ही प्रतिक्रमण कहलाता है। इसी के द्वारा ही कोई व्यक्ति ठीक से मौन में, निविचार में उतर सकता है । और तभी वह सम्यक् श्रवण का पात्र होकर श्रावक बन सकता है। श्रावक - कला को प्राप्त कर लेना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि इसलिए है कि अब जो मौन में बोला गया उसे सुना ही नहीं पाया जा सकता है। बल्कि जो किसी स्थूल माध्यम से कहा भी न जा सके बस समझा जा सके, अनुभव में लिया जा सके उसे भी पाया जा सकता है। कोई बुद्ध पुरुष सामने हो और यदि वह चाहे कि उसके श्रावक तक वह पहुंच जाये, जो देना अभीष्ट है तो वह उस तक एकदम पहुंचाया जा सकता है। (स्मरण रहे कि यह पद्धति टेलीपैथी जैसी प्रक्रिया से नितान्त भिन्न है । क्योंकि टेलीपैथी में विचार सम्प्रेषण ही चलता है जबकि इसमें स्थिति निर्विचार की होती है)। इस प्रकार महावीर जब श्रावक होना पार उतरने का एक उपाय, एक घाट कहते हैं तो एक बहुत कीमती प्रक्रिया दे रहे हैं जो साधना जगत् में उनकी एक अप्रतिम, अद्वितीय और अभूतपूर्व खोज है। सभी तरह की साधनाओं में एक प्रक्रिया चलती है। जिसके लिए एक शब्द है --- ध्यान । चाहे वह योग हो, सूफी साधना हो, तन्त्र हो या भक्ति ही क्यों न हो। ध्यान किसी न किसी प्रकार विद्यमान पाया जाता है। भले ही नाम अलग हो या रूप तनिक भिन्न हो । ध्यानाचार्यों की एक बड़ी लम्बी, समृद्ध और बहुत विकसित परम्परा भारत में रही है । महावीर द्वारा प्रतिपादित साधना-मार्ग भी 'वस्तुतः ध्यान मार्ग ही है। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने इसे ज्यों का त्यों नहीं उठा लिया। बल्कि इसमें भी उन्होंने अपनी वैज्ञानिक दृष्टि के साथ इसे एक अलग-सा रूप प्रदान किया जिसे उन्होंने नाम दिया है- सामायिक । यों इस शब्द को ध्यान का पर्याय माना जा सकता है । किन्तु इसमें और महावीर से पूर्व का यानी परम्परागत ध्यान पद्धति में फर्क है । उदाहरण के लिए जैसे ही ध्यान शब्द हमारे सामने आता है तो उसके साथ एक प्रश्न ध्वनित होता महसूस होता है। 'किसका ध्यान ?' अथवा 'किसके ध्यान में ?' या 'किस पर ध्यान ?' या 'कहां ध्यान लगायें ?' इत्यादि ( यह मैं साधना की दृष्टि से कह रहा हूं) यानी प्रकारान्तर से ध्यान शब्द ही किसी न किसी रूप में पर केन्द्रित ' दिखाई पड़ता है | अतः महावीर जो किसी भी पर के समर्थक हरगिज नहीं बल्कि 'स्व' के प्रबल पक्षधर हैं— ने बजाय ध्यान के सामायिक शब्द देकर उसे ‘पर' से सर्वथा मुक्त करने का साहसिक प्रयास किया। उनके अनुसार समय का मतलब है आत्मा । तो सामायिक का अर्थ हुआ समय अर्थात् आत्मा से स्थिर होने की स्थिति । यह जो समय को उन्होंने आत्मा की संज्ञा दी । यह बात जरा अजीब-सी लग सकती है और कोई परिकल्पना-सी प्रतीत होती है और बड़ा विस्तार चाहती है। किन्तु यहां मैं थोड़े में स्पष्ट करके आगे निवेदन करूंगा । अधिकतर विचारकों की दृष्टि में काल तथा क्षेत्र सदा से दो भिन्न चीजें मानी जाती रही हैं। यानी काल अलग है, क्षेत्र अलग है । किन्तु आइन्स्टीन के कारण एक अभूतपूर्व घटना घटी। यानी उसने अपने सापेक्ष सिद्धान्त द्वारा यह साबित कर दिया कि ये दोनों अलग नहीं अभिन्न हैं। दोनों एक साथ और एक ही बीज के हिस्से हैं। विज्ञान जगत् में प्रथम बार यह कान्ति हुई कि काल व क्षेत्र को जोड़ लिया गया । मोटे तौर पर किसी चीज के अस्तित्व में तीन बातें देखी जाती हैं, भौतिक शास्त्र के अनुसार । यानी लम्बाई, चौड़ाई व ऊंचाई । किन्तु शनैः शनैः यह पाया गया कि इन तीनों में से किसी में भी उसका 'अस्तित्व' नहीं समा पाता है। तब इस अस्तित्व के बारे में जो भी वक्तव्य दिया जाये वह अधूरा होगा कि कोई चीज कहां, किस स्थान पर व किस आकार की है । किन्तु प्रश्न उठता है – कब है ? और इसके उत्तर बिना अस्तित्व की व्याख्या अपूर्ण होगी । तो आइन्स्टीन ने अस्तित्व की सबसे पहली अनिवार्यता मानी है – समय या काल । भौतिक विज्ञान को उसकी यह देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। उधर आत्मा के विज्ञान में और साधना-जगत् में सबसे प्रथम महावीर को यह बोध हुआ कि समय जो है वही चेतना की दिशा है। दूसरे शब्दों में समय के बिना चेतना का अस्तित्व अनुभव में नहीं आ सकता । अतः समय का जो बोध है, भाव है, वही चेतना का सबसे अनिवार्य अंग है, अतएव उन्होंने आत्मा को समय ही कहना अधिक उचित समझा। और यह इसलिए भी कि एक ही तत्व ( समय या काल ) अनादि, अनन्त, शाश्वत, सनातन भी है। सदा से है और सदा रहने वाला है। बाकी जो भी आयेगा, चला जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only ८५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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