SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 770
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैज्ञानिक आईने में जैन धर्म श्री राजीव प्रचंडिया राग और द्वेष अर्थात् कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) के विजेता जिन' तथा जिन के मार्ग का अनुसरण करने वाले व्यक्ति वस्तुतः जैन कहलाते हैं। यथार्थत: जैन वह है जो रूढ़ि परम्पराओं से दूर हटकर स्वतन्त्रता पूर्वक आत्मोदय में लीन रहता है । अनुरोध और विरोध परक परिस्थितियों में वह सर्वथा माध्यस्थभाव रखता है। सबके उदय में उसे प्रमोद पुलकन होती है। धर्म के स्वरूप को स्थिर करते हुए भारतीय आचार्यों ने मूलतः दो व्याख्यायें स्थिर की हैं--एक महर्षि वेद व्यास की जिसमें कहा गया है कि "धारणाद्धर्म'—जो धारण करता है, उद्धार करता है अथवा जो धारण करने योग्य हो, उसे धर्म कहा जाता है। दूसरी व्याख्या है जैन परम्परा की जिसमें कहा गया कि वस्तु का अपना स्वरूप ही धर्म है। धर्म आत्मतत्त्व के वास्तविक स्वरूप को उद्घाटित करता है । वस्तुतः धर्म मानव जीवन का मूलाधार है। जीवन में उपयोगिता की दृष्टि से धर्म और विज्ञान दोनों का स्वतन्त्र महत्त्व है। ये दोनों ही सत्य तक पहुंचने के माध्यम हैं। विज्ञान भौतिक प्रयोग-शाला में किसी वस्तु की सार्वभौमिक सत्यता को उद्घाटित करता है। पर धर्म जिज्ञासा-अनुभव के आधार पर आत्म प्रयोग शाला में सत्य को खोजता है । दोनों का मार्य तो एक ही है । सत्य को पहिचानना-परखना किन्तु मार्ग अलग-अलग हैं। वैज्ञानिक आईने में जैन धर्म पर यहां चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है। जैन धर्म प्रकृति के अनुरूप होने के कारण व्यावहारिक तथा जीवनोपयोगी धर्म है। इसकी मान्यतायें वास्तविकता की सुदृढ़ नींव पर अवस्थित और विज्ञान सम्मत हैं। अतएव यह एक वैज्ञानिक धर्म है। यह निर्विवाद सत्य है कि अणु, परमाणु, जीव, पुद्गल, वनस्पति आदि का जितना विशद और सूक्ष्म विश्लेषण जैन दर्शन करता है। उतना विज्ञान सम्मत दर्शन अन्य किसी धर्म का नहीं है। जैन धर्म का लक्ष्य पूर्ण वीतराग-विज्ञानिता की प्राप्ति है । यह वीतरागता सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र का मिला जुला पथ ही व्यक्ति को मुक्ति या सिद्धि तक ले जाता है। क्योंकि ज्ञान से भावों (पदार्थों) का सम्यक् बोध होता है, दर्शन से श्रद्धा होती है। जब तक यह आत्मा कर्म द्वारा आच्छादित है, तब तक उसका वास्तविक स्वरूप अप्रकट रहता है । यह निश्चित सिद्धान्त है कि आत्मा के बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान के बिना आत्मा नहीं। आत्मा और ज्ञान का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है, शाश्वत है । जैन धर्म स्वीकारता है कि आत्मा नित्य है, अविनाशी है एवं शाश्वत स्वतन्त्र द्रव्य है। उत्पादन के अभाव में इसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। जिसकी उत्पत्ति नहीं, उसका विनाश भी नहीं होता है। अतः वह अनादि है तथा विभिन्न योनियों में अनन्त काल से परिभ्रमण करता रहता है। जैन दर्शन की वह मान्यता विज्ञान सम्मत है। विश्व-विख्यात वैज्ञानिक सर डाल्टन का परमाणुवाद जैन दर्शन के आत्मवाद से साम्य रखता है। १. "जिदकोहमाणमायाजिदलोहातेण ते जिणा होति।"-मूलाचार, गाथा सं०५६१, अनन्त कीतिग्रन्थमाला, वि० सं० १९७६ २. "जिनस्य सम्बन्धीदं जिनेन प्रोक्तं वा जैनम् ।" -प्रवचनसार, गाथा सं० २०८ ३. "वत्यु सहावी धम्मो।" -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा सं०४७८, राजचन्द्र ग्रन्थमाला, सन् १९६७ ४. "णाणेण जाणई भावे, देसणेण य सद्द है। चारित्तेण निगिण्हाई, तवेण परिसुज्झई ॥" - उत्तराध्ययनसूत्र २८-३५ ५. “अप्पाणं विणु णाणं, णाणं विणु अप्पगो न संदेहो।" --नियमसार, गाथा सं० १७१ ६. "णिच्चो अविणासि सासओ जीवो।" -दशवकालिक, नियुक्ति भाष्य, ४२ ७. "नस्थि जीवस्स नासोत्ति।" -उत्तराध्ययनसूत्र, २-२७ ८. "सव्वेसमकम्म कप्पिया।" -सूत्रकृतांग, १-२-३-१८ ७४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy