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________________ उसकी विभिन्न पर्याय एवं अन्य पदार्थों की अपेक्षा से होता है। आइंस्टीन का सापेक्षवाद इसी सिद्धान्त से प्रभावित है । इस सिद्धान्त की विशेषता यह है कि जब विभिन्न दर्शन एक-दूसरे का खण्डन करते हैं जैन दर्शन इस सिद्धान्त के द्वारा यह कहकर सामंजस्य ला देता है कि यह भी सत्य है और यह भी । केवल आवश्यकता है दृष्टिकोण बदलने की और दूसरे को समझने की। इस प्रकार इस सिद्धान्त ने सहिष्णुता, उदारता, सौहार्द, प्रेम को जन्म दिया और रक्तपिपासा को शान्त किया। यही कारण है कि जैन समाज सदा और सर्वत्र संघर्ष और विरोध से बची रही। इसी सिद्धान्त से उन्होंने ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय भी किया। आचार्य 'कुन्दकुन्द ने पंचास्तिकाय में लिखा है : न वियष्यदि गाणादी पाणी माणानि होति गाणि । तम्मादु विस्सरूवं भणियं दवियं ति मागीहि ॥ अर्थात् आत्मा अपने गुण ज्ञान से भिन्न नहीं है और क्योंकि ज्ञान अनेक हैं अतः पदार्थ के रूप भी ज्ञानियों ने अनेक कहे हैं । वास्तव में यह सिद्धान्त विवाद, कलह एवं संघर्ष के समय उसे शान्त करने के लिए अग्नि पर जल का कार्य करता है। विश्व के सभी विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। जैन धर्म के प्रसिद्ध सिद्ध णमोकार मन्त्र में 'णमो लोए सव्वसाहूणं' कहकर लोक में विद्यमान सभी साधुओं को नमस्कार किया गया है। केवल जैन साधु को ही नहीं वरन् भाव से प्रत्येक साधु को नमस्कार है, चाहे वह कोई भी हो । कतिपय क्रांतिकारी कदम: इन दार्शनिक सिद्धांतों के अतिरिक्त भगवान् महावीर ने समाज में वैषम्य और विरोध दूर करने के लिए कुछ क्रान्तिकारी और बातें भी कहीं, जैसे – समाज में कोई ऊंच-नीच नहीं है तथा सभी वर्ग समाज का एक सम्माननीय अंग है । उस समय वर्ण व्यवस्था बड़ी कठोरता से प्रचलित थी तथा तथाकथित निम्न वर्ग के लोगों के साथ बड़ा दुर्व्यहार होता था और स्त्री वर्ग को हीन भावना से देखा जाता था । भगवान् महावीर ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई और ब्राह्मणादि वर्ण-भेद को जन्म से न मानकर कर्म से माना : कम्मुणा होइ वम्मणो वम्मुणा होड बलियो इत्यादि । आचार्य अमितगति ने स्पष्ट कहा है कि आचार भेद से ही जाति-भेद की कल्पना हुई है, ब्राह्मणादि जाति कोई नियत और वास्तविक नहीं है— आचारमात्रभेदेन जातीनां मेवकल्पनम् । न जाति ब्राह्मणाद्यस्ति नियता क्वापि तात्विकी ॥ उन्होंने शीलवन्तो गताः स्वर्गं नीचजातिभवा अपि -- कहकर नीचकुलोत्पन्न व्यक्तियों को शुद्धाचरण के पालन से स्वर्ग की प्राप्ति तक बतलाई है । श्री देवसेनाचार्य ने तो यहां तक कहा कि जो भी व्यक्ति, चाहे वह ब्राह्मण हो या और कोई अन्य इस जैन धर्म का पालन करता है वही श्रेष्ठ श्रावक है क्योंकि श्रावक के सिर पर कोई ऐसी मणि तो लगी नहीं होती जो उसे श्रावक जनाती हो : - एह धम्मु जो आवर दंभ सुहवि कोड। सो साहु कि सावय अण्ण कि सिरिमणि होइ ॥ भगवान् महावीर ने कहा कि प्रत्येक भव्य आत्मा परमात्मा बन सकती है चाहे वह किसी जाति या वर्ग से सम्बन्ध रखती हो । जाति कुल वर्ग, देश एवं कालादि से परे प्रत्येक सद्व्यक्ति को मुक्ति का अधिकार है, वह स्वयं ईश्वर हो सकता है यह उनकी एक बड़ी स्तुत्य देन है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार में 'ण हु होदिमोकवमग्गो लिंग' कहकर श्रमण और श्रावकों के लिए लिंग (वेष ) का कोई महत्त्व नहीं बतलाया । उन्होंने सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को ही महत्त्व दिया, साधक चाहे कोई हो । Jain Education International इस प्रकार जहां उन्होंने समाज से ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाया वहां नारी समाज के उत्थान पर भी बल दिया। महासती चन्दनबाला का वृत्त इसका उदाहरण है। जिनके उद्धारार्थ भगवान् स्वयं उनके घर पधारे थे । इन सिद्धान्तों एवं सुधार की बातों से स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर महान् तत्त्वदर्शी थे जिन्होंने सभी कालों एवं क्षेत्रों में विश्वहित की भावना से इनका प्रतिपादन किया। समाज की सुदृढ़ नींव यदि इन पर रखी जाय जैसा कि पहले दर्शाया जा चुका है तो वह पतन की ओर नहीं जा सकती, न उनमें विग्रह की दीमक लग सकती है और न संघर्ष के विविध कारणों की टांकी ढहा सकती है । अतएव यह विश्वास से कहा जा सकता है कि जैन धर्म के ये सिद्धान्त जितने उस समय उपयोगी थे, आज भी हैं और सदा रहेंगे क्योंकि आधुनिक युग महान् संघर्ष, भ्रष्टाचार एवं ऊंचनीच के भावों से ग्रसित है । जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ For Private & Personal Use Only ७३ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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