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धर्म में ऐसी कोई सत्य संबंधी विभाजन रेखा परिलक्षित नहीं होती है। इस धर्म में सत्य का तात्पर्यं केवल सत्य बोलने मात्र से नहीं है । यहां सत्य का तात्पर्य ऐसे सम्भाषण से होता है जिसमें सुन्दरता और मधुरता का समावेश रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि हित-मितप्रिय गुणों से पूर्ण होने पर ही कथन में सत्यता कही जावेगी । अथवा सत्य का हितमित प्रिय होना परमावश्यक है।
ऐसे सत्य के लिए क्षमा, निर्भयता और निर्लोभता जैसे गुणों का सद्भाव जीवन में आवश्यक है क्योंकि क्रोध, भय, और लोभाबस्था में सत्य का पालन नहीं हो पाता है। संस्कृत के विद्वानों ने भी हितं मनोहारि च दुर्लभं बच्चः कहकर हित-मित प्रिय गुणों की ओर ही संकेत किया है और परोक्ष रूप से उक्त अभिमत को ही मान्यता प्रदान की है।
ऐसे सत्यान्वेषी सांसारिक कष्ट से भयभीत नहीं होते हैं। आत्म कल्याणार्थ सिंहवृति से जीवनयापन करते हुए आगे बढ़ते हैं तथा सत्य को समझ कर वे जीवन में क्रिया रूप में उसे परिणत करते हैं। सत्याचरणी मुनिजन यही कारण है कि निर्भयता पूर्वक विचरते हैं क्योंकि वे स्वहित तो करते ही हैं परन्तु जीवहित का भी पूर्ण ध्यान रखते हैं सत्य की यथार्थता के दर्शन मुनियों में ही होते हैं ।
जैन धर्म में समझाये गए जीवाजीवादिक सप्त तत्त्वों की यथार्थता का बोध ही सत्य प्रतीत होता है क्योंकि तत्त्व-बोध में जीव का कल्याण निहित है, जो कि सत्य का एक अंग है। सत्याचरण अनुभव में आता है कि बहुत कठिन है, फिर भी सत्य यह ही है कि सत्य जाने पहिचाने बिना जीव को शान्ति की उपलब्धि नहीं है । ऐसे कल्याणकारी सत्य का गहराई से निरूपण कर आदर्श प्रस्तुत करना जैन धर्म की द्वितीय मौलिक देन है ।
सदाचरण संबंधी चिंतन इस धर्म की तृतीय विशेषता है। सदाचारिता पर इतर धर्मों की अपेक्षा इस धर्म में अधिक बल दिया गया है । इस हेतु इस धर्म ने अनेक ऐसे नियम एवं आचार संबंधी तथ्यों का समावेश किया है तथा उनकी गहराई में प्रवेश कर बारीकी से विचार करते हुए पंच महाव्रत अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह का अतिचारों सहित वर्णन कर सामाजिक व्यवस्था एवं शान्ति बनाये रखने में महत्वपूर्ण योगदान किया है। ये महाव्रत मनसा वाचा कर्मणा पालनीय बताये गए हैं।
सदाचारिता के लिए जैन धर्म ने जीवन में - क्षमा, नम्रता, सौजन्यता, सत्य, स्वच्छता, आत्म संयम, पवित्रता, त्याग, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य गुणों का समावेश आवश्यक बताया है, तथा प्रत्येक को धर्म कहा है। सामायिक, प्रतिक्रमण, व्रतोपवास जैसे उपाय भी दर्शाये गए हैं जिनसे कि सदाचारिता में स्थिरता बनी रहती है।
डॉ० विद्याधर महाजन ने स्पष्ट शब्दों में अपनी कृति प्राचीन भारत का इतिहास ( १६७३ ई० ) के पृष्ठ १७४ में लिखा है कि "जीवन की पवित्रता की दृष्टि से जैन धर्म, बौद्ध धर्म की अपेक्षा पर्याप्त आगे रहा है।" इस कथन से यह अर्थ निष्पन्न होता है कि जीवन को पवित्र बनाने में अन्य धर्मों की अपेक्षा जैन धर्म ने अधिक गहराई से चितन प्रस्तुत किया है तथा समाज को सदाचरण की ओर प्रेरित कर तदनुकूल आचरण बनाये रखने की महती आकांक्षा प्रकट की है। इससे यह स्पष्ट है कि सदाचरण के अभाव में सामाजिक अशान्ति उत्पन्न होती है और पग-पग पर समाज कष्ट का अनुभव करता है। अतः कहा जा सकता है कि कल्याणकारी सदाचरण संबंधी उक्त नियमादि का गम्भीर चिन्तन जैन धर्म की मौलिक देन है, जो नियम सामाजिक सुख-शान्ति के स्रोत प्रमाणित हुए हैं।
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मौलिक देन है जैन धर्म की विश्व के लिए उसकी कर्म व्यवस्था, आत्मा और ईश्वर के संबंध में विचार कामिक व्यवस्था का निर्माण कर जैन धर्म ने एक कल्याणकारी भूमिका का निर्वाह किया है। सुख-दुःख, जीवन-मरण, रूप-रंग, जाति-कुल, आदि स्वकृत कर्मों के फल दर्शाये गए हैं। जीवन में प्राप्त विघ्न-बाधाएं तथा ज्ञान दर्शनादि साता - असाता कर्म जनित फल हैं। प्रत्येक प्राणी को इन्हें अनिवार्य रूपेण भोगना पड़ता है।
जैन धर्म चूंकि आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करता है तथा उसकी यह मान्यता है कि प्रकाश की भांति इसका अस्तित्व होता है । यही सुख-दुःख का अनुभव करती है और यह शरीर से पृथक् है तथा अजर, अमर, अरूपी, अनित्य है। इस धारणा से यह और प्रमाणित हो गया है कि जिन कर्मों का फल इस प्रयय में प्राप्त नहीं हो सका है, वह फल आगामी पर्याय में भोगना पड़ेगा ।
इसी प्रकार ईश्वर को जैन धर्म ने मान्यता तो दी है किन्तु ईश्वर को कर्त्ता हर्ता के रूप में स्वीकार नहीं किया है। सुख-दुःख दाता भी नहीं माना है । इस धर्म में ईश्वर को वीतरागी कहा गया है। यही कारण है कि ईश्वर पूजा में दया अथवा क्षमा के लिए इस धर्म में याचना निर्देशित नहीं की गयी है। ईश्वर को निस्पृही सांसारिक बन्धनों से मुक्त बताया गया है।
ऐसा कहकर जैन धर्म ने देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञादि में या विविध रूप से जीव-वध किए जाने या बलि चढ़ाये जाने से उत्पन्न पाप फल भोगने से अपने अनुयायियों को बचाकर धार्मिक सूझ बूझ का परिचय दिया है तथा इतर धर्मों के समक्ष जीव हितैषी भावना को प्रस्तुत किया है ।
ऐसी ईश्वर संबंधी धारणा से स्वावलम्बन की भावना का निर्माण होता है तथा हीन भावनाओं का विनाश होता है । वार्णिक भेद को भी प्रश्रय नहीं मिल पाता है। समानता की भावना उदित होती है। इतर सामाजिक बुराइयां भी उत्पन्न नहीं हो पाती हैं।
जैन तत्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ
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