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________________ जैनधर्म की विश्व को मौलिक देन : एक चिन्तन डॉ० कस्तूर चन्द 'सुमन' सांसारिक स्थिति को देखते हुए सम्प्रति यही अनुभव किया जा रहा है, कि संसार शान्ति का पिपाषु है। उसकी पिपाषा-शान्ति अभयस्थिति में है और अभयस्थिति का मूलाधार दिखाई देती है सुरक्षा, जिसका सद्भाव प्रेमाश्रित है; जिस प्रेम या हार्दिक स्नेह को हम अहिंसा कहकर पुकारते हैं, और उसे धार्मिक स्वरूप प्रदान करते हैं। जैनधर्म में अहिंसात्मक-भावों का अंकन जीवरक्षार्थ किया गया है। जीव हितैषी होने के कारण वे सर्व-ग्राह्य हो गए हैं । वैदिक और बौद्धादि अन्य धर्मों में निर्देशित अहिंसा की अपेक्षा जैनधर्म की अहिंसा में "सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:" के सर्वाधिक भावों का अंकन दिखाई देता है। सूर्यास्त के पश्चात् भोजन-पानादि न करना, पानी छानकर पीना आदि क्रियाएं जीवसुरक्षा-प्रधान अहिंसा धर्म की ही प्रतीक हैं। अहिंसा प्रधान धर्मों में जैनधर्म उच्चकोटि का धर्म माना गया है । इस धर्म में जीव-हत्या की बात तो बहुत दूर है, जीव-हत्या की कल्पना को भी महापाप की संज्ञा दी गई है। अहिंसा धर्म के अनुयायी हिंसक-भाव न मन में विचारते हैं, न वचन से उचारते हैं और न ही किसी को ऐसे निंद्य कर्म हेतु प्रोत्साहित करते या आज्ञा देते हैं। अहिंसा का मार्मिक रहस्योद्घाटन करते हुए यथा धीवरकर्षको कहकर जैनधर्म ने ही संभवत: सर्वप्रथम यह कहा था कि हिंसा-भावों से युक्त धीवर भले ही हिंसा न करे किन्तु हिंसागत पाप से अलिप्त नहीं रह पाता है, जबकि कृषक हिंसा करते हुए भी हिंसागत भाव न होने के कारण हिंसा-दोषों से अलिप्त बना रहता है। __ इसी प्रकार सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए जैनधर्म ने ही संभवतः सर्वप्रथम यह उद्घोषणा की थी कि अग्नि, जल, वायु, वनस्पति और पर्वतों में भी आत्मा निवास करती है, वे सचेतन हैं तथा उनमें भी मनुष्यों के समान दुःखानुभूति होती है। अत: इन्हें भी पीड़ित नहीं करना चाहिए। जीविका के संबंध में भी जैनधर्म का चिन्तन अनठा ही है। इस धर्म में उपदेश दिया गया है कि श्रावकों को अपनी आजीविका मधुकरवृत्ति से करनी चाहिए। इससे यही अर्थ फलित होता है कि जैनधर्म चाहता है कि जैसे भ्रमर फूल को हानि पहुंचाए बिना ही पराग का पान करता है, वैसे ही जीवों को बिना कष्ट दिए सभी को अपनी आजीविका अजित करनी चाहिए। इस प्रकार अहिंसात्मक सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से जैसा चिन्तन जैन धर्म में प्रस्तुत किया गया है, वैसा अन्यत्र नहीं है। इतर धर्मो में प्रेमोपदेश अवश्य उपलब्ध है, परन्तु उसका संबंध केवल मनुष्यों से दर्शाया गया है, मनुष्येतर जीवों की उपेक्षा की गई है। अन्य धर्मों में एक ओर दया को धर्म का मूल दर्शाया गया है तो दूसरी ओर यज्ञादि-संबंधी उपदेश देकर विरोधाभास भी उत्पन्न कर दिया गया है, जबकि जैन धर्म में ऐसे भाव कहीं भी नहीं दर्शाये गए हैं। सर्वत्र एक रूपता ही भावों में प्राप्त होती है। जैन धर्म का ही प्रभाव था जो कि जीव-दया से प्रेरित होकर भगवान महावीर ने पशु बलिकारी यज्ञादि का अपने जीवन काल में कमर कसकर विरोध किया था, और "जियो और जीने दो" का नारा बुलन्द कर अहिंसा-धर्म की ओर समाज को आकृष्ट किया था। बीसवीं सदी के महान संत महात्मा गांधी ऐसे ही अहिंसा के पुजारी थे। अहिंसा परमो धर्मः की मान्यता जैन धर्म ने ही प्रस्तुत की। यही कारण है कि यह वाक्य आज जैन धर्म का पर्यायवाची नाम माना जाने लगा है। इस प्रकार अहिंसात्मक चिन्तन जैन धर्म की विश्व के लिए एक ऐसी मौलिक देन है, जिससे न केवल मनुष्यों को बल्कि मनुष्येतर सभी शान्ति पिपाषु जीवधारियों को शान्ति प्राप्त हो सकेगी। सांसारिक मरणभय दूर हो सकेगा और जीवन जी सकेंगे सभी सुख और शान्ति पूर्वक। ___जैन धर्म की द्वितीय मौलिक देन है सत्य । बौद्ध-धर्म में चार आर्य सत्यों के रूप में जैसा सत्य का विभाजन किया गया है, जैन आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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