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________________ श्रमण संस्कृति की विश्व मानवता को देन श्री श्रीकृष्ण पाठक श्रमण संस्कृति-कितनी शीलमयी, कितनी करुणामयी, कितनी ममतामयी, त्यागमयी, मानवतामयी, कोमलता, विनय और अनुरागमयी है कि मैं उसके हृदय में, उसके अंतरतम में जितनी गहाराई तक प्रवेश करता है उसे पूर्वापेक्षा अधिक से अधिक सुंदर, अधिक से अधिक मंगलमय, शांतिमय और मुक्तिमय पाता हूं और वह भी मेरे व्यक्तित्व, कृतित्व एवं अस्तित्व के रोम-रोम में गहराइयों तक प्रविष्ट होती हुई मुझे निरंतर हर पल, हर क्षण प्रभावित करती हुई मानव के महान् चरणों तक पहुंचा देती है और मैं वहां मंत्रमुग्ध सा अपने आपको विश्व-मानवता के चरण-कमलों में पूर्ण नत, पूर्ण समर्पित तथा उनकी वंदना, उनकी अभ्यर्चना करता हुआ पाता हूं—मेरे ऊपर इस प्रकार का प्रभाव डालने वाली केवल यह श्रमण-संस्कृति ही है-जो मेरा सर्वोपरि आराध्य है और जिसका मैं अनुगामी, उपासक एवं आराधक हूँ। मैं उसके सुंदर-सुंदर, कोमल-कोमल और लोक पावन तीरों से पूरी तरह घायल हूं फिर भी मुझे पीड़ा की नहीं आनन्द की अनुभूति होती है। मैंने चिंतन, मनन एवं अनुशीलन के पश्चात् यह पाया है कि विश्व-मानवता के जितनी समीप श्रमण-संस्कृति है उतनी दूसरी नहीं । अखिल मानव सृष्टि का जो कल्याण श्रमण-संस्कृति की सरस एवं पुनीत सरिता में अवगाहन करने से हो सकता है वैसा कहीं और जाकर मज्जन करने से नहीं। मानव की सनातन एवं शाश्वत पीड़ा, उसकी व्यवस्था, उसका करुण-क्रन्दन, उसके अभावों की अथाह झील, सामंतों एवं श्रीमंतों के अति कोमल ? अति महान् ? कर-कमलों से वीभत्सता, भयंकरता और नग्नता के साथ सम्पादित होने वाला मानव का शोषण, उत्पीड़न और उन्मूलन जितना अधिक श्रमण-संस्कृति के प्रवर्तकों एवं उन्नायकों को दिखाई दिया उतना मेरी विनम्र दृष्टि से किसी अन्य को नहीं। मानव के अधिकारों की लाशों के ढेर देखकर जितने व्यथित,विचलित एवं विगलित श्रमण-संस्कृति के धारक हुये उतना कोई अन्य, शायद, नहीं। श्रमण-संस्कृति-धारकों के सर्वमान्य प्रतिनिधि, बहुश्रुत, बहुचचित, सर्वज्ञात तथा सामान्य से सामान्य व्यक्ति की आत्मा में प्रतिष्ठित भगवान महावीर तो मानव अधिकारों का हनन एवं मानव की पीड़ा को देखकर अप्रतिम रूप से आन्दोलित, पीड़ित एवं दुःखी हुये। उनके लिए गोस्वामी तुलसीदास की निम्नांतिक पंक्तियां पूर्णतः सार्थक प्रतीत होती हैं : संत हृदय नवनीत समाना । कहा कविन पै कहइ न जाना ॥ निज परिताप द्रव नवनीता । पर दुख दुखी संत सुपुनीता ॥ महावीर की दृष्टि में, महावीर के मस्तिष्क में, महावीर के हृदय में, उनकी आत्मा में अधिक क्या कहूं, महावीर के रोम-रोम में, उनकी नींद और भूख तक में समा गई थी, प्रविष्ट हो गई थी, छा गई थी नंगी, भूखी, गूंगी, बहरी, निराश्रित, अनाथ और रोती और बिलखती हुई मानवता। महावीर ने मानव की विपन्नावस्था, उसकी दुर्दशा एवं उसकी पूर्ण अधिकार-हीन-स्थिति पर गंभीर चिंतन किया और निष्कर्ष निकाला कि इस निरीह, दीन-हीन मानव के साथ समरसता स्थापित किये बिना इसका उद्धार होने वाला नहीं, इसका कल्याण होने वाला नहीं, इसको इसके अधिकार वापस मिलने वाले नहीं अतः उन्होंने इस संसार के समस्त भोगों, प्रलोभनों, सम्पदाओं, सुखों एवं सुविधाओं को सदा-सर्वदा के लिए तिलांजली दे दी और वैसे ही हो गये जैसा था उनका धन-भूमि-भवन तथा अधिकार-हीन मानव । ६४ आचार्यरत्त श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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