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________________ विशालता के आगे संकीर्ण हो जाता हैं।"' अब तो स्थिति यह है कि मनुष्य कुटुम्ब के दायरे में भी उदार नहीं रहा, वह अपने आप ही में बन्द है। परिणाम यह है कि परिवार भी विघटित होता जा रहा है। प्रत्येक मनुष्य एक अपरिचित और बाहरी व्यक्ति (Outsider) की तरह जी रहा है। भगवान महावीर ने व्यक्तिवाद का स्वस्थ रूप प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार हर व्यक्ति का व्यक्तित्व मूल्यवान् है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में साध्य है और उसकी नियति वह बनना है, जो वह वास्तव में है। उसे किसी के समक्ष आत्म-समर्पण करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अपने आप पर विजय पाकर स्वस्थ और आत्मवान् होना है। भगवान महावीर का दृष्टिकोण गणतान्त्रिक है अतएव वे 'साध्यों का साम्राज्य' (Kingdom of ends) बसाना चाहते हैं जिसमें सभी राजा हों—सभी ईश्वर हों- (अहमिन्द्र)। उनकी धारणा है कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा है, किसी परमात्मा का खण्ड-अंश होने के कारण नहीं, बल्कि अपने अन्दर अनन्त शक्तियों (अनन्त चतुष्टय) की उपस्थिति के कारण । प्रत्येक व्यक्ति को उसी प्रकार विकसित हो जाना है जैसे किसी बगीचे में अलग-अलग किस्म के फूल खिल जाते हैं और सबों के खिलने में ही बगीचे की शोभा और सौन्दर्य है। यह व्यक्तिवाद मिल, काण्ट या सात्र के व्यक्तिवाद के समकक्ष है। मिल ने कहा था -'जबकि दस पागल व्यक्तियों में नौ व्यक्ति निरीह मूर्ख होते हैं, वह दसवां अधिक महत्त्व का है, क्योंकि वह कोई सुकरात या जीसस हो सकता है--जिसे दुनिया ने न पहचाना हो।' अतएव प्रत्येक व्यक्ति का समान मूल्य है। किसी के व्यक्तित्व का अनादर नहीं होना चाहिए। काण्ट ने भी कहा था, 'मानवता चाहे तुम्हारे अन्दर हो या दूसरे में उसे सदा साध्य समझो साधन नहीं। सात्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है, नहीं--स्वतन्त्रता ही मनुष्य हैं।' (Freedom is man)। प्रत्येक व्यक्ति अनुपम है, अतएव किसी को दूसरे के ढांचे में नहीं ढलना है। 'दूसरा ही नर्क है।' (The other is hell) | वर्तमान बिडम्बना (The Present Crisis) : यह सत्य है कि विज्ञान ने दिक् और काल पर विजय पा ली है। और वैज्ञानिक तकनीक ने मनुष्य को चन्द्रमा पर पहुंचा दिया है। विज्ञान ने मनुष्य के हाथ में परमाणु की असीम शक्ति दी है जिससे भौतिकता के मामले में मनुष्य अत्यन्त समृद्ध हो गया है। परन्तु आत्मिकता और आत्मीयता के क्षेत्र में वह अत्यन्त विपन्न हो गया है । उसकी महत्त्वाकांक्षा ने उसे भीतर से तोड़ कर रख दिया है। डा० राधाकृष्णन ने लिखा है, "मनुष्य जो बनना चाहता है, और जो है, उसके बीच विनाशकारी असन्तुलन है। यह विरोध हमारी अशांति का कारण है। हम बात समझदार व्यक्तियों की तरह करते हैं, पर व्यवहार पागलों की तरह से।" मनुष्य ने बाह्य पदार्थ को तो अन्त तक जान लिया है, परन्त उसे अपने अन्तर का अपने आपका कोई ज्ञान नहीं है। वह अपने सामने ही दीन-हीन हो गया है। वह अपने-आप से टूट गया है। आत्मा अज्ञान के कारण वह बाहर-बाहर शरण की तलाश में भटकता है, परन्तु बाहर उसे कहीं शरण नहीं मिल सकती है। भगवान महावीर के अनसार बाहर की कोई भी वस्तु-धरा-धाम, धन-सम्पत्ति, स्त्री-पुत्र कोई हमारा शरण नहीं हो सकते । मनुष्य मात्र आत्मा में, धर्म में शरण पा सकता है। परन्तु आधुनिक मनुष्य कभी भी अपने आप में, धर्म में है ही नहीं। वह सोते-जागते सदा बाहर है । प्रत्येक व्यक्ति खौलता हुआ इन्सान है, जिसने ढक्कन स्वरूप सभ्यता का मुखौटा पहन रखा है। यह खौलना जब तक ६६.६ तक होता तब तक वह व्यक्ति सामान्य कहलाता है और यही जब १०० तक पहुंच जाता है, तो वह विक्षिप्त या असामान्य करार दिया जाता है। वस्तुतः तथाकथित सामान्य और पागल व्यक्ति में अन्तर मात्र .१° का है। फायड ने कहा है कि 'आधुनिक मनुष्य सैमसन की भांति जंजीरों में जकड़ा हुआ कराह रहा है, परन्त एक दिन वह सभ्यता के खम्भों को उखाड़ फेंकेगा और पुनः बर्बर अवस्था में लौट जाएगा । वर्तमान सभ्यता ने मनुष्य में बहत असंतोष १. सतीश वर्मा, "बड़े शहरों का प्रसाद : बढ़ता तनाव", धर्मयुग, ६ फरवरी, १९७५. प०७पर उद्धत R. Colin Wison, The Outsider, Pan Books Ltd, London, 1970 3. Kant, "Treat humanity either in thine own person or in others always as an end and never as a means." The Critique of Practical Reason ४. सतीश वर्मा, धर्मयुग, ६ फरवरी, १९७५, पृ० ६ पर उद्धृत ५, "दाराणि य सुया येव, मित्ता य तह बंधवा । जीवन्तमणु जीवन्ति, मयं नाणुव्वयन्ति य॥" -उत्तराध्ययनसूत्र, १८/१४ "वित्त पसवो य नाइओ, तं वाले सरणं ति मन्नई । एते मम तेसुविअहं, नो ताणं सरणं न विज्जई॥" -सूत्रकृतांगसूत्र, १/२/३/१६ ६. "जरा मरणं वेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दीवो, पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥"-उत्तराध्ययन सूत्र, अध्याय २३, गाथा ६८ अर्थात् जरा-मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव के लिए धर्म ही एकमात्र दीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। आचार्य रत्न श्री देशमूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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