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________________ और साहस के अभाव का द्योतक है। यह राजतन्त्र का परिणाम है।' राजा की उपमा पर ही मनुष्यों ने संसार के एक शासक की कल्पना कर ली है। आधुनिक युग की प्रवृत्ति स्वावलम्बन और मानवतावाद की प्रवृत्ति है। ऑगस्ट कॉमटे ( August Comte) ने माना है कि विज्ञान का लक्ष्य केवल ज्ञान के लिए ज्ञान पाना नहीं, बल्कि उसका लक्ष्य मानवता की- -जो दुःखी और सन्तृप्त है, सेवा करना है, उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना है। हक्सले फ्रायड, ब्रट्रेन्ड रसेल, मैक्स ओटो, आदि सभी विज्ञानवादी चिन्तकों का यही मत है ।' कॉमटे ने माना है कि ईश्वरवाद मनुष्य के विकास में बाधक है, क्योंकि यह मनुष्य को आवश्यक रूप से लोभी बनाता है। जैन दर्शन में भी माना गया है कि ईश्वर की धारणा मनुष्य के विकास में बाधक है। आचार्य अमितगति ने लिखा है – “मनुष्य अपने कर्म के अनुसार शुभ-अशुभ फल पाता है। यदि दूसरे से कुछ प्राप्त हो सकता, तो अपना कर्म निरर्थक हो जाता है । निजार्जित कर्मों को छोड़कर कोई किसी को कुछ दे नहीं सकता, अतएव कोई दूसरा दे सकता है - इस धारणा को मन से निकाल देना चाहिए।"" भगवान महावीर ने कहा है- "मनुष्य स्वयं अपने सुख-दुःख का कर्ता है और स्वयं अपने सुख-दुःख का विनाशक ! वह दुष्प्रवृत्ति और सुप्रवृत्ति के अनुसार स्वयं अपना शत्रु है, और स्वयं अपना मित्र ।" अप्पा कत्ताविकत्ता य दुक्खाण य सुहाण य । अप्पा मित्तंमित्तं यदुष्पट्ठिय सुपट्ठिय ॥ जैन दर्शन का लक्ष्य भी स्वावलम्बन, आत्मविकास और मानवता का कल्याण है । परस्पर एक-दूसरे का उपकार ही जीव का धर्म है । परस्परोग्रहो जीवानाम् । व्यक्तिवादी मनोवृत्ति (Individualistic Attitude) : विज्ञान की विश्लेषणवादी मनोवृत्ति ने पदार्थ के क्षेत्र में परमाणु की धारणा और समाज के क्षेत्र में व्यक्तिवादी विचारधारा को जन्म दिया जिसके अनुसार व्यक्ति ही सत्य है। व्यक्तिवाद का विकृत रूप स्वार्थवाद है जिससे आधुनिक युग ग्रस्त है । प्रत्येक व्यक्ति अपनेअपने खोलों में बन्द है । कोई अपना स्वार्थ दूसरे के लिए त्यागने को तैयार नहीं है । बेन्थम ने कहा है- 'सम्भव है कि स्वर्ग का राज्य पृथ्वी पर उतर आए, पर सपने में भी मत सोचो कि कोई मनुष्य तुम्हारे लिए कानी उंगली भी हिलाएगा, यदि वैसा करने में भी उसका कुछ स्वार्थ निहित न हो' ( It is possible that heaven may come down to the earth, but dream not that man will move even his little finger to serve you, unless in doing so some of his own gains be obvious to him. ) यह स्वार्थवाद का नाम ताण्डव है जिसमें हर व्यक्ति अपने को अकेला (Lonely) अनुभव कर रहा है। आधुनिक युग में यह भाव गहरा होता जा रहा है कि-'मैं किसी का नहीं है । कोई मेरा नहीं है' और यह भावना मनुष्य के परम विषाद का कारण बन गई है। आज प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे के प्रति शंकालु है । बात पराये की मत पूछो, हमें हाय अपनों से भय है। डा० राम मनोहर लोहिया ने लिखा है - "स्वार्थ अपने-अपने कुटुम्ब के दायरे में तो उदार रहता है, लेकिन मानव कुटुम्ब की १. देखिए, कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, जैन-धर्म, भा० दि० जैन संघ, मथुरा, पृ० ११६ २. Comte, 'The Philosophy of Positivism' ३. देखिए, रसेल--''A Free man's Worship", Mysticism and Logic, George Allen & Unwin Ltd. 1951. "What I believe", The besic writings of Burtrand Russell, George Allen & Unwin, London, 1946 ४. आचार्य अमितगति - "स्वयं कृतः कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीय लभते शुभाशुभं । परेणदत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं सदा ॥ निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किंचन । विचार यन्नेव मन्यमानसः शेमषी ॥ " परोददाति विमुच्य ५. उत्तराध्ययनसूत्र, २०/३७ ६. तस्वार्थसूत्र, ५ / २१ जैन मानवतावाद की विस्तृत व्याख्या के लिए देखिए मेरी पुस्तिका - 'जीव से जिन की ओर', ज्ञानम्, भागलपुर, १६७४ जैन तत्व चिन्तन आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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