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________________ संग्रहेच्छा है या भोगेच्छा। भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् वह एक मानसिक बीमारी है जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा के कीटाणु रहे हुए हैं । वस्तुतः वह आवश्यकताओं के कारण नहीं वरन् तृष्णा के कारण उत्पन्न होती है । आवश्यकताओं का निराकरण पदार्थों को उपलब्ध करके किया जा सकता है लेकिन इस तृष्णा का निराकरण पदार्थों के द्वारा संभव नहीं है। तृष्णाजनित विकृतियां केवल अनासक्ति द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। हमारे वर्तमान युग की प्रमुख कठिनाई यह है कि हमें सामान्य जीवन जीने के साधन उपलब्ध नहीं अथवा उनका अभाव है, वरन् कठिनाई यह कि आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा सुखद एवं शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता। किसी सीमा तक हम यह भी मान लें कि अभाव के कारण आर्थिक-भ्रष्टाचार का जन्म होता है तो जहां तक कृत्रिम अभाव का प्रश्न है वह कुछ व्यक्तियों के द्वारा किये गये अवैध संग्रह का परिणाम है। किन्तु जैन नीति दर्शन ने गृहस्थ साधक के अनर्थदण्ड विरमण व्रत में उपभोग के पदार्थों के अनावश्यक संग्रह को निषिद्ध ठहराया है। दूसरे यदि अभाव वास्तविक भी हो तो उपभोग का नियन्त्रण करके दूर किया जा सकता है। जिसके लिए उपभोग-परिभोग मर्यादा नामक व्रत का विधान है। इस प्रकार जैन दर्शन परिग्रह और उपभोग के परिसीमन के द्वारा समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता की समाप्ति का सूत्र प्रस्तुत करता है। जैन धर्म हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित है। जैन आचार दर्शन उपर्युक्त तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार दर्शन में तीन सिद्धान्त प्रस्तुत करता है । सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिये उसने अहिंसा एवं सामाजिक समता का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए वह परिग्रह एवं उपभोग के परिसीमन का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार बौद्धिक एवं वैचारिक संघर्षों के निराकरण के लिए अनाग्रह और अनेकान्त सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं। ये सिद्धान्त क्रमशः सामाजिक समता आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना करते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि दर्शन सामाजिक जीवन से विषमताओं के निराकरण और समत्व के सृजन के लिए एक ऐसी आचार विधि प्रस्तुत करता है जिसके सम्यक् परिपालन से सामाजिक जीवन में सच्ची शान्ति और वास्तविक सुख का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उसने सामाजिक जीवन से सम्बन्धों के शुद्धिकरण पर अधिक बल दिया है। यही कारण है कि उसके द्वारा प्रस्तुत सामाजिक आदेश अपनी प्रकृति में निषेधात्मक अधिक प्रतीत होते हैं यद्यपि विधायक सामाजिक आदेशों का उसमें पूर्ण अभाव नहीं है। उसके कुछ प्रमुख सामाजिक आदेश निम्न हैं निष्ठा सूत्र : १. सभी आत्मायें स्वरूपतः समान हैं, अत: सामाजिक जीवन में ऊंच-नीच के वर्ग भेद या वर्ण भेद खड़े मत करो। (उत्तराध्ययन १२॥३७) २. सभी आत्मायें समान रूप से सुखाभिलाषि हैं, अतः दूसरे के हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी को नहीं है। (आचारांग ॥२॥३) सभी के साथ वैसा व्यवहार करो जैसा तुम उनसे स्वयं के प्रति चाहते हो (समणसुत्तं २४)। ३. संसार में प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखो, किसी से भी घृणा एवं विद्वेष मत रखो (समणसुत्तं ८६) ४. गुणीजनों के प्रति आदर भाव और दृष्टजनों के प्रति उपेक्षाभाव रखो (सामायिक पाठ १) ५. संसार में जो दुःखी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और वात्सल्य भाव रखो और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा __ सहयोग प्रदान करो (वही १) व्यवहार सूत्रः उपासक दशांगसूत्र एवं रत्नकरण्ड श्रावकाचार में वर्णित श्रावक के १२ व्रतों एवं उनके अतिचारों से निम्न सामाजिक आचारनियम फलित हैं--- १. किसी निर्दोष प्राणी को बन्दी मत बनाओ अर्थात् सामान्यजनों की स्वतन्त्रता में बाधक मत बनो। २. किसी का वध या अंगभेद मत करो, किसी से भी मर्यादा से अधिक काम मत लो। ३. किसी की आजीविका में बाधक मत बनो। ४. पारस्परिक विश्वास को भंग मत करो। न तो किसी की अमानत हड़पो और न किसी के रहस्यों को प्रकट करो। ५. सामाजिक जीवन में गलत सलाह मत दो, अफवाह मत फैलाओ और दूसरों के चरित्र-हनन का प्रयास मत करो। जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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