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________________ सामाजिक जीवन में विषमता से उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं-(१) संग्रह (लोभ) (२)आवेश (क्रोध) (३) गर्व (बड़ा मानना) और (४) माया (छिपाना) । जिन्हें जैन धर्म में चार कषाय कहा जाता है, यही चारों अलग-अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं। (१) संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं । (२) आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध आक्रमण एवं हत्याएं आदि होते हैं। (३)गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, और क्रूर व्यवहार होता है। इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास उत्पन्न होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है, उन्हीं के कारण सारा सामाजिक जीवन दूषित होता है। जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। अत: यह कहना उचित होगा कि जैन दर्शन अपने साधना मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर, सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है। यदि हम जैन धर्म में स्वीकृत पांच महाव्रतों को देखें तो स्पष्ट रूपों से उनका पूरा सन्दर्भ सामाजिक जीवन है। हिंसा, मृषावचन, चोरी, व्यभिचार एवं संग्रहवृत्ति सामाजिक जीवन की बुराइयां हैं। इनसे बचने के लिए पांच महाव्रतों के रूप में जिन नैतिक सद्गुणों की स्थापना की गई वे पूर्णत: सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र स्पष्ट रूप से कहता है कि पांचों महाव्रत सर्व प्रकार से लोकहित के लिए ही है (२६।२२) । जैन धर्म में समाज के आर्थिक वैषम्य के निराकरण का सूत्र-आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत् के सम्बन्धों से उत्पन्न हई विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तुएं अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं । यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है तो एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है, इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता के बीज का वपन होता है। जैसे जैसे एक ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है और परिणाम स्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता है। आर्थिक वैषम्य के मूल में संग्रह भावना ही अधिक है। उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते हैं कि "गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊंचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे सम्पत्ति का विसर्जन होगा, तो गरीबी अपने आप दूर हट जाएगी। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो। परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त किया जा सकता है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक समता नहीं आ सकती। व आर्थिक वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव है और जैन दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक वषम्य के निराकरण का प्रयास करता है । जैन धर्म में गृहस्थ जीवन के लिए परिग्रह एवं उपभोग-परिभोग के सीमांकन का विधान किया गया है, जो आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन हो सकता है। आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने अपने व्रत-विधान में किया था। जैन दर्शन सम्पदा के उत्पादन पर नहीं अपितु उसके अपरिमित संग्रह और उपभोग पर नियन्त्रण लगाता है। आर्थिक वैषम्य का निराकरण अनाशक्ति और अपरिग्रह की साधना के द्वारा ही सम्भव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आथिक समानता की बात करना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत उपभोग एवं सम्पत्ति की सीमा का निर्धारण करना ही होगा । अपरिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में समत्व का सृजन कर सकता है। जैन दर्शन का परिग्रह सिद्धान्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त सिद्ध होता है। वर्तमान युग में मार्क्स ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धान्त साम्यवादी समाज के रचना के रूप में प्रस्तुत किया, वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, लेकिन उसकी मूलभूत कमी यही है कि वह मानव समाज पर ऊपर से थोपा जाता है, उसके अन्तर से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दवाओं से वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार केवल कानून के बल पर लाया गया आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन नहीं करता है । अतः आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य में स्वतः ही त्याग की वृत्ति का उदय हो और वह स्वैच्छा से ही सम्पत्ति के विसर्जनकी दिशा में आगे आवे। भारतीय परम्परा और विशेषकर जैन परम्परा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है वरन उसके समवितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है। जो यह बताता है कि जो कुछ हमारे पास है, उसका समविभाजन करना है। महावीर का उद्घोष कि “असंविभागी णाहु तस्स मोक्खो" स्पष्ट बताता है कि जैन दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिए समवितरण की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैन दर्शन के इन सिद्धान्तों को यदि उन्हीं युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है। वर्तमान युग में भ्रष्टाचार के रूप में समाज के आर्थिक क्षेत्र में जो बुराई पनप रही है, उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की १. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ०२ २. जैन प्रकाश, ८ अप्रैल १९६६, पृ० १ ४६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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