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________________ उसे बौद्धिक आधार प्रदान किया गया और एकत्व की अनुभूति को अधिक व्यापक बनाया गया। किन्तु सामाजिक जीवन एक ऐसा जीवन है, जो यथार्थ की भूमि पर खड़ा होता है । जब तक सामाजिक चेतना पुष्ट करने हेतु समानुभूति में बाधक बनने वाले तत्त्वों को तथा सामाजिक संरचना को विखण्डित करने वाले तत्त्वों को दूर नहीं किया जाता, तब तक एक सफल सामाजिक जीवन की कल्पना यथार्थ की धरती पर नहीं उतरती । अतः जैन एवं बौद्ध परंपराओं ने सामाजिक चेतना के विकास में जो योगदान दिया वह एक भिन्न प्रकार का था। उन्होंने सामाजिक संबंधों की शुद्धि का प्रयत्न किया तथा उन सब बातों को जो सामाजिक जीवन में बाधक थीं या जिनके कारण सामाजिक जीवन में कटुता और टकराहट उत्पन्न होती थी, उन्हें दूर करने का प्रयत्न किया। चाहे उनके द्वारा प्रस्तुत आदेशों और उपदेशों की भाषा निषेधात्मक हो किंतु उन्होंने उन मूलभूत दोषों के परिमार्जन का प्रयत्न किया है जो सामाजिक जीवन को विषाक्त और कटुतापूर्ण बनाते थे। वस्तुतः उनका योगदान उस चिकित्सक के समान है जो बीमारी के मूलभूत कारणों का विश्लेषण कर उनके निराकरण के उपाय बताता है और इस प्रकार वे सामाजिक जीवन की बुराइयों का निराकरण कर एक स्वस्थ सामाजिक जीवन का आधार प्रस्तुत करते हैं। क्या निवृत्ति सामाजिक विमुखता की सूचक है ? वस्तुतः जैन धर्म अथवा बौद्ध धर्म को निवर्तक परम्परा का पोषक मानकर इस आधार पर यह मान लेना कि उनमें सामाजिक जीवन की समस्याओं के समाधान की उपेक्षा की गई है, सबसे बड़ी भ्रांति होगी। चाहे वे इतना अवश्य मानते हों कि वैयक्तिक साधना की दृष्टि से एकाकी जीवन लाभप्रद हो सकता है, किन्तु उनकी स्पष्ट धारणा है कि उस साधना से प्राप्त सिद्धि का उपयोग सामाजिक कल्याण की दिशा में ही किया जाना चाहिए। बुद्ध और महावीर का जीवन स्वयं इस बात का प्रमाण है कि ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने संघ की स्थापना की और जीवन पर्यन्त लोक मंगल के लिए कार्य करते रहे । वस्तुत: महावीर की निवृत्ति, उनके द्वारा किये जाने वाले सामाजिक कल्याण में साधक ही बनी है, बाधक नहीं। वैयक्तिक जीवन में नैतिक स्तर का विकास लोकजीवन या सामुदायिक जीवन की प्राथमिकता है। महावीर सामाजिक कल्याण और सामाजिक सेवा की आवश्यकता तो मानते थे, किन्तु वे व्यक्ति-सुधार से समाज-सुधार की दिशा में आगे बढ़ना चाहते थे। व्यक्ति समाज की प्रथम इकाई है, वह सुधरेगा तो ही समाज सुधरेगा । व्यक्ति के नैतिक विकास के परिणामस्वरूप जो सामाजिक जीवन फलित होगा, वह सुव्यवस्था और शान्ति से युक्त होगा, उसमें संघर्ष और तनाव का अभाव होगा। जब तक व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति नहीं आती, तब तक सामाजिक जीवन की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। अपने व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिए राग-द्वेष के मनोविकारों और असत्कर्मी प्रवृत्ति से निवृत्ति आवश्यक है। जब व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति आयेगी, तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अंत:करण विशुद्ध होगा और तब जो भी सामाजिक प्रवृत्ति फलित होगी वह लोकहितार्थ और लोकमंगल के लिए होगी। जब तक व्यक्तिगत जीवन में संयम और निवृत्ति के तत्त्व न होंगे, तब तक सच्चा सामाजिक जीवन फलित ही नहीं होगा। जो व्यक्ति अपने स्वार्थों और अपनी वासनाओं का नियंत्रण नहीं कर सकता, वह कभी सामाजिक हो ही नहीं सकता। उपाध्याय अमर मुनि के शब्दों में जैन दर्शन की निवृत्ति का मर्म यही है कि व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक जीवन में प्रवृत्ति । लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थो से दूर रहे, यह जैन दर्शन की आचार संहिता का पहला पाठ है। अपने व्यक्तिगत जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर ही समाज कल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैनदर्शन का पहला नीति धर्म है।' सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत नैतिकता परस्पर विरोधी नहीं है। बिना व्यक्तिगत नैतिकता को उपलब्ध किये सामाजिक नैतिकता की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। चरित्रहीन व्यक्ति सामाजिक जीवन के लिए घातक ही होगा । अत: हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन में निवृत्ति का जो स्वर मुखर हुआ है, वह समाजविरोधी नहीं है, वह सच्चे अर्थों में सामाजिक जीवन का साधक है। चरित्रवान व्यक्ति और व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठे हुए व्यक्ति ही किसी आदर्श समाज का निर्माण कर सकते हैं । वैयक्तिक स्वार्थों की पूर्ति के निमित्त जो संगठन या समुदाय बनते हैं, वे सामाजिक जीवन के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं, क्या चोर, डाकू और शोषकों का समाज, समाज कहलाने का अधिकारी है ? समाज जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है। व्यक्ति अपने और पराये के भाव से तथा अपने व्यक्तिगत क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठे, चूंकि जैन दर्शन हमें इन्हीं तत्त्वों की शिक्षा देता है, अत: वह सच्चे अर्थों में सामाजिक है, असामाजिक नहीं है । जैन दर्शन का निवृत्तिपरक होना सामाजिक विमुखता का सूचक नहीं है। अशुभ से निवृत्ति ही शुभ में प्रवृत्ति का साधन बन सकती है। वैयक्तिक जीवन में निवृत्ति ही सामाजिक प्रवृत्ति का आधार है। तीर्थंकर नमस्कार सूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि विशेषणों का उपयोग हुआ है वे भी जैन दृष्टि की लोक मंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। तीर्थकर की मंगलमय वाक् धारा का प्रस्फुटन तो लोक की पीड़ा की अनुभूति में ही रहा १. अमरभारती अप्रैल, १६६६, पृ०२ २. सूत्रकृतांग टीका, १/६/४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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