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________________ मिलकर चलो, मिलकर बोलो, तुम्हारे मन साथ-साय विचार करें" अर्थात् तुम्हारे जीवन व्यवहार में सहयोग, तुम्हारी वाणी में समस्वरता और तुम्हारे विचारों में समानता हो। आगे पुनः वह कहता है : समानो मन्त्रः समितिः समानी, समानं मनः सहचित्तमेषाम् । समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः॥ समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। (ऋग्वेद १०।१६११३-४) "आप सबके निर्णय समान हों, आप सबकी सभा भी सबके लिए समान हो, अर्थात् सबके प्रति समान व्यवहार करें। आपका मन भी समान हो और आपकी चित्त-वृत्ति भी समान हो, आपके संकल्प एक हों, आपके हृदय एक हों, आपका मन भी एक-रूप हो ताकि आप मिलजल कर अच्छी तरह से कार्य कर सके।" सम्भवतः सामाजिक जीवन एवं समाज-निष्ठा के परिप्रेक्ष्य में वैदिक युग के भारतीय चिन्तन के ये महत्त्वपूर्ण उदगार हैं । वैदिक ऋषियों का कृण्वतौ विश्वमार्यम् के रूप में एक सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज की रचना का मिशन तभी सफल हो सकता था जबकि वे जन-जन में समाज-निष्ठा के बीज का वपन करते। सहयोगपूर्ण जीवन-शैली उनका मूल मंतव्य था। प्रत्येक अवसर पर शांति-पाठ के माध्यम से वे जन-जन में समाजिक चेतना के विकास का प्रयास करते थे। वे अपने शांति-पाठ में कहते थे: ॐ सहनाववतु सह नो भुनक्तु सहवीर्य करवावहै, तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै। (तैत्तरीय आरण्यक ८।२) "हम सब साथ-साथ रक्षित हों, साथ-साथ पोषित हों, साथ-साथ सामर्थ्य को प्राप्त हों, हमारा अध्ययन तेजस्वी हो, हम आपस में विद्वेष न करें।" औपनिषदिक ऋषि 'एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा', 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' तथा 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' के रूप में एकत्व की अनुभूति करने लगा। औपनिषदिकचिन्तन में वैयक्तिकता से ऊपर उठकर सामाजिक एकता के लिए अभेद-निष्ठा का सर्वोत्कृष्ट तात्विक आधार प्रस्तुत किया गया। भारतीय दर्शन में यह अभेद-निष्ठा ही सामाजिक एकत्व की चेतना एवं सामाजिक समता का आधार बनी है। ईशावास्योपनिषद् का ऋषि कहता था: यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति । - सर्व-भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥ "जो सभी प्राणियों को अपने में और अपने को सभी प्राणियों में देखता है वह अपनी इस एकात्मा की अनुभूति के कारण किसी से घणा नहीं करता है।" सामाजिक जीवन के विकास का आधार एकात्मता की अनुभूति है और जब एकात्मता की दृष्टि का विकास हो जाता है तो घणा और विद्वेष के तत्त्व स्वत: समाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार जहां एक ओर औपनिषदिक ऋषियों ने एकात्मता की चेतना को जाग्रत कर सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेष के तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर ईश्वरीय सम्पदा अर्थात् सामूहिक सम्पदा का विचार भी प्रस्तुत किया। ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋषि कहता है : ईशावास्यमिदं सर्व यत्किच जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुंजीथाः मागध कस्यस्विद्धनम् ॥ (ईशा० ११) अर्थात् इस जगत् में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वरीय है, ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके। इस प्रकार श्लोक के पूर्वार्द्ध में वैयक्तिक अधिकार का निरसन करके समष्टि को प्रधानता दी गई है। श्लोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियां हैं उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है। अत: उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो क्योंकि सम्पत्ति किसी एक की नहीं है। सम्भवतः सामाजिकता की चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसरा कथन नहीं हो सकता था। गांधीजी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में कहा था कि यदि भारतीय संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाये, किन्तु यह श्लोक भी बना रहे तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। 'तेन त्यक्तेन मुंजीथाः' में समग्र सामाजिक चेतना केन्द्रित दिखाई देती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां वैदिक युग में सामाजिक चेतना के विकास के लिए सहयोग एवं सहजीवन का संकल्प उपस्थित किया गया वहां औपनिषदिक युग में सामाजिक चेतना को सुदृढ़ बनाने हेतु दार्शनिक आधार प्रस्तुत किये गये। जैन तत्त्व चिन्तन : आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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