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________________ सापेक्षिक कथन दूसरों के दृष्टिकोण को समान रूप से आदर देता है । खुले मस्तिष्क से पारस्परिक विचारों का आदान-प्रदान करता है । प्रतिपाद्य की यथार्थवत्ता प्रतिबद्धता से मुक्त होकर सामने आ जाती है। वैचारिक हिंसा से व्यक्ति दूर हो जाता है। अस्तिनास्ति के विवाद से मुक्त होकर नयों के माध्यम से प्रतिनिधि शब्द समाज और व्यक्ति को प्रेम पूर्वक एक प्लेट फार्म पर बैठा देते हैं । चिन्तन और भाषा के क्षेत्र में न या सियावाय वियागरेज्जा का उपदेश समाज और व्यक्ति के अर्द्वन्द्वों को समाप्त कर देता है, सभी को पूर्ण न्याय देकर सरल, स्पष्ट और निर्विवाद अभिव्यक्ति का मार्ग प्रशस्त कर देता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने उदधाविव समुदीर्णाtrafafe नाथ ! दृष्टय : : कहकर इसी तथ्य को अपनी भगवद् स्तुति में प्रस्तुत किया है । हरिभद्र की भी समन्वयात्मक साधना इस संदर्भ में स्मरणीय है संघर्ष का क्षेत्र दर्शन ही नहीं, व्यवहार भी होता है। दोनों पक्षों में समन्वय साधना की अपेक्षा होती है सामाजिक साधना के लिए, विषमता को दूर करने के लिए । लोकेषणा के कारण धर्म का संयम किंवा आचार पक्ष गौण हुआ तथा उपासना पक्ष प्रबल होता गया। उपासना में पारलौकिक विविध आश्वासनों का भण्डार रहता ही है पुरुषार्थ की भी उतनी आवश्यकता नहीं रहती । इसी क्रम में धार्मिक चेतना कम होती चली जाती है, उपासना तत्त्व बढ़ता चला जाता है, और हम मूल को छोड़कर अन्यत्र भटक जाते हैं । कदाचित यही स्थिति देखकर सोमदेव ने समन्वय की भाषा में गृहस्थ के लिए दो धर्मों की बात कह दी -- लौकिक धर्म और पारलौकिक धर्म लौकिक धर्म लोकथित है और पारलौकिक धर्म आगमाश्रित है। व्यवहार की भाषा किंवा अनुभूति की शास्त्रीय भाषा का जामा पहनाकर समाज को एक आन्तरिक संघर्ष से बचा लिया सोमदेव ने। यह उनकी समन्वय साधना थी। इसी साधना के बल पर साधक समत्व की साधना करता है चाहे वह सामाजिक क्षेत्र हो या राजनीतिक, अनेकान्त के अनुसार सर्वधा विरोध किसी भी क्षेत्र में होता नहीं इसलिए विरोध में भी अविरोध का स्रोत उपलब्ध हो जाता है। मैं सप्तगियों को चिन्तन के क्षेत्र में पड़ाव मानकर चलता हूं । वे समन्वय की विभिन्न दिशायें हैं सर्वोदय की मूल भावना से उनका जुड़ाव बंधा हुआ है। भववीजांकुरजनना, रागादयाक्षपमुपागता यत्य । बा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्यै ॥ अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद समाज के लिए वस्तुतः एक संजीवनी है। वर्तमान संघर्ष के युग में अपने आपको सभी के साथ मिलने-जुलने का एक अमोघ अनुदान है । प्रगति का नया एक साधन है। पारिवारिक विद्वेष को शान्त करने का एक अनुपम चिन्तन है, अहिंसा और सत्य की प्रतिष्ठा का केन्द्र बिन्दु है। मानवता की स्थापना में नींव का पत्थर है। पारस्परिक समझ और सह-अस्तित्व के क्षेत्र में एक सबल लैंप पोष्ट है। इनकी उपेक्षा विद्वेष और कटुता का आवाहन है। संघर्षों की कथाओं का प्लाट है । विनाश उसका क्लाइमेक्स है विचारों और दृष्टियों की टकराहट तथा व्यक्ति व्यक्ति के बीच खड़ा हुआ एक लम्बा गेप वैयक्तिक और सामाजिक संघर्षो की सीमा को लांघकर राष्ट्र और विश्व स्तर तक पहुंच जाता है। हर संघर्ष का जन्म विचारों का मतभेद और उसकी पारस्परिक अवमानना से होता है। बुद्धिवाद उसका केन्द्र बिन्दु है । अनेकान्तवाद बुद्धिवादी होने का आग्रह नहीं करता । आग्रह से तो वह मुक्त है ही पर इतना अवश्य कहता है कि बुद्धिनिष्ठ बनो । बुद्धिवाद खतरावाद है विद्वानों का वाद है पर बुद्धिनिष्ठ होना खतरों और संघर्षों से मुक्त होने का अकथ्य कथ्य है। यही सर्वोदयवाद है। इसे जैनवाद कहना सबसे बड़ी भूल होगी। यह तो मानवतावाद है जिसमें अहिंसा, सत्य, सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, सामाजिकता सहयोग, सद्भाव और संयम जैन आत्मिक गुणों का विकास सन्नद्ध है । सामाजिक और राष्ट्रीय उत्थान भी इसकी सीमा से बहिभूत नहीं रखे जा सकते । व्यक्तिगत परिवारगत, संस्थागत और संप्रदायगत विद्वेष की विषैली आग का शमन भी इसी के माध्यम से होना संभव है । अतः सामाजिकता के मानदण्ड में अनेकान्तवाद और सर्वोदयवाद खरे उतरे हैं। w इस प्रकार जीवन और सत्य के बीच अनेकान्तवाद एक धुरी का काम करता है और सर्वोदयवाद उसके पथ को प्रशस्त करता है। दोनों समस्यूत होकर जीवन को विशद, निश्छल, समास, निरूपद्रवी तथा निर्विवादी बना देता है। यही उसकी सार्वभौमिक उपयोगिता है । जैन तत्त्व चिन्तन आधुनिक संदर्भ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३१ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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