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तत्यिम पठमं ठाणंमहावीरेणदेसियं अहिंसा निउणादिट्ठा, सब्बभूयसुसंजमो। जावन्ति लोए पाणा तसा अदुव भावए
ते जाणमजाणं वा नहणे नोविधायए । अहिंसा की सूक्ष्मतम परिभाषा देते हुए भगवान महावीर ने कहा कि संसार में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उन सबको क्या जाने या अनजाने न खुद मारे और न दूसरों से मरवाये । जो मनुष्य प्राणियों की स्वयं हिंसा करता है या दूसरों से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वालों का अनुमोदन करता है वह संसार में अपने लिए वैर को ही बढ़ावा देता है :
जावन्ति लोए पाणा तसा अदुवा थावए ते जाणमजाणं वा, न हणे सोवि घायए। संय तिवायए पाणे, अदुवऽन्ने हि घायए
हणन्तं वाङणु जाणादू, वेरं वड्ढइ अप्पणो॥ महावीर भगवान् ने मन या वचन से भी किसी के प्रति अहित भावना तक को हिंसा कहा है। उन्होंने कहा है कि संसार में रहने वाले त्रस और स्थावर जीवों पर मनुष्य मन या वचन से और शरीर से किसी भी तरह दण्ड का प्रयोग न करेंगे:
जगनिस्सिएहि भूएहितस नामे हि थावरे हिच ।
नोनेसिमारमें दंडे, मनसा वचसाकायसचेव ॥ क्योंकि सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इसलिए निग्रन्थ घोर प्राणी वध का सर्वथा परित्याग करते हैं :
सब्वे जीवाहि इच्छंतिजीविउ न मरिजिउ ।
__ तम्ह पाणिवह घोर निग्गंधा वज्जयंतिणं ।। भय और वैर से निवृत्त साधक जीवन के प्रति मोह ममता रखने वाले सब प्राणियों को सर्वत्र अपनी ही आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करें :
अज्झत्यं सम्बओ सर्बदिस्स पाणेपियायए।
न हणे पाणियो पाणे भयतेराओ उवारए॥ भगवान् महावीर ने अहिंसा को एक शब्द में कहा है-वह है संयम । उनका कहना है कि अहिंसक वह है जो हाथों का संयम करें, परों का संयम करें, वाणी का संयम करें और इन्द्रियों का संयम करें। अर्थात् संयम ही अहिंसा है और वह आत्मनिष्ठा से फलित होती है।
मनुष्य का विवेक विचारशीलता और बुद्धि का विकास देखते हुए ऐसा लगता है कि उसमें अहिंसा की मात्रा कम है। इसका प्रमुख कारण है कि अहिंसा का ज्ञानी होना और साधक बनना दोनों में बड़ा अन्तर है। केवल पाण्डित्य से अहिंसा का पालन या संचालन नहीं हो सकता उसके लिए साधना करनी पड़ेगी। मनुष्य को सर्वप्रथम इसके लिए पौद्गलिक परिणामों से ऊपर उठना पड़ेगा। उसे अपने स्व-पर की भावना से ऊपर उठना है क्योंकि अहिंसा के विकास में यदि सबसे बड़ी बाधा है तो वह है 'स्व' और 'पर' का ज्ञान । जब तक धरती पर इन भावनाओं से ऊपर उठकर मनुष्य आत्मबली नहीं होगा उसे सच्ची अहिंसा का पालन करना नहीं आएगा। अहिंसा के लिए शरीर-वस्त्र से कहीं ज्यादा जरूरत है आत्मबल की। भगवान् महावीर में यदि आत्मबल नहीं होता तो वे संसार के एक मात्र प्रबल अहिंसक नहीं हुए होते। आत्मबल स्वयं साधना का फल है । यह अहिंसा की रुचि से बढ़ता है। इससे अहिंसा का विकास होता है । आत्मबल आने पर ही अहिंसक निर्भय रहता है। निर्भयता अहिंसा का प्राण है । भय से कायरता आती है। कायरता से मानसिक कमजोरी और उससे हिंसा वृत्ति बढ़ती है।
वर्तमान युग में इसकी महती आवश्यकता है। आज का मानव अपने वैज्ञानिक सुसाधनों पर इतना अधिक विश्वास कर बैठा है कि उसके मन और मस्तिष्क में अहिंसक-भावनाओं की पृष्ठभूमि रहते हुए भी वह उस ओर अविश्वस्त होकर देखता है। उसे ज्ञान है किन्तु साधना कर नहीं पाता । अहिंसा साधना-साध्य है-यह बात सभी ऋषियों तत्त्वज्ञानियों और साधकों ने कही है।
आज का संसार विनाश के कगार पर पहुंच चुका है। अपने वैज्ञानिक विश्वास के कारण उसे अपने पौद्गलिक स्वरूप तक का ही विलोकन होता है । वह सूक्ष्मतम अहिंसा के प्रभाव को नहीं पहचान रहा है। जिस दिन उसे अहिंसा के इस विशेष स्वरूप का ज्ञान ही नहीं, प्रयोग करना आ जायगा उसी दिन मानव का विकास होगा यह निश्चित है। भौतिकवादी दृष्टिकोण रखकर भी वर्तमान युग में महात्मा गांधी ने केवल अहिंसा के आंशिक प्रयोग से भारत की स्वाधीनता के संग्राम में लाभ उठाया।
अतः पूर्णमानवीयता के ही नहीं, अपितु प्राणिमात्र के कल्याण के लिए यदि कोई एक ही मार्ग है तो वह है अहिंसा का प्रयोगात्मक स्वरूप, जिसे अपनाने पर ही आज का मानव कल्प कल्पान्तर तक सच्चिदानन्द को प्राप्त कर चिरसुखी हो सकता है।
आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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