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वर्तमान में व्याप्त साम्प्रदायिक तनावों का विश्लेषण करते हुए आस्ट्रेलियन मूल के हिन्दू संन्यासी डा० भारती का कहना है कि किन्हीं दो भिन्न-भिन्न धर्मों के मध्य व्याप्त पारस्परिक तनाव उन धर्मों के सिद्धान्तों से उत्पन्न तनाव नहीं हैं बल्कि वर्तमान में प्रचलित सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं के कारण उपजे हुए तनाव हैं।'
आधुनिक विचारक एक ऐसे 'समाज-धर्म' (सोशल रिलिजन) की कल्पनाओं को संजोए हुए हैं जिसमें केवल मात्र व्यक्ति कल्याण को ही महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए बल्कि उसमें सामूहिक कल्याण एवं सामाजिक प्रगति के लिए भी व्यवस्था रहनी चाहिए। सी० ए. एलवुड द्वारा निर्धारित ऐसे ‘समाज-धर्म' की मूल चेतना वैचारिक उदारता, सहानुभुतिपूर्ण दृष्टिकोण तथा मानवमात्र के प्रति प्रेम भावना के द्वारा ही संभव है। भारतवर्ष का राष्ट्रीय महाकाव्य 'महाभारत' धर्म की इस आधुनिक परिभाषा के बहुत निकट आकर ही व्यक्तिगत कल्याण तथा सामाजिक सामंजस्य की दृष्टि से धर्म-लक्षण का प्रतिपादन करता है
धारणाद्धर्ममित्याहुर्धर्मो धारयते प्रजाः ।
यस्माद्धारणासंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ॥' अर्थात् धारण करने के कारण धर्म नाम है, धर्म प्रजाओं को धारण करता है। जिससे लोक का धारण हो, लोक की स्थिति हो वही निश्चय रूप में धर्म है। महाभारत प्रोक्त धर्म की इस उदार व्याख्या की पृष्ठभूमि में जो मूल प्रेरणा निहित है वह अहिंसा की भावना है। इसी अहिंसा की प्रेरणा के कारण ही धर्म लोक-कल्याण का साधक कहा जा सकता है
यत्स्याहिंसासंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः।
अहिसार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् ॥ जैन विचारकों ने 'अहिंसा परमो धर्म:' का जो प्रचार किया है उसकी सार्थकता और गम्भीरता हमें तब समझ में आती है जब हम यह देखते हैं कि 'अहिंसा' सत्य से भी ऊपर के स्थान पर प्रतिष्ठित होती है। संभवतः किसी के प्राण यदि संकट मेंहों तो उस समय असत्य बोलना भी 'धर्म' कहलाएगा इसलिए अहिंसा की अपेक्षा से ही 'सत्य' का भी निर्धारण किया जाता है। अहिंसा की इस भावना को आज विश्वव्यापी समस्याओं के सन्दर्भ में भी विशेष महत्त्व दिया जा रहा है। मार्टिन लूथर किंग की धर्मपत्नी श्रीमती कोरेटा ने महात्मा गांधी पर बनी फिल्म 'गांधी' के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि "प्राचीन समय की अपेक्षा आज अहिंसा का सिद्धान्त अधिक प्रासंगिक है। महात्मा गांधी के अहिंसा-दर्शन ने अमरीकी समाज व्यवस्था में भी क्रान्ति के बीज बोए हैं।"६ इसी अहिंसा के सिद्धान्त पर पूर्णत: अवलम्बित जैन धर्म और दर्शन की आधुनिक युग-परिवेश में विशेष भूमिका हो सकती है।
प्रस्तुत खण्ड में आधुनिक युग चिन्तन के परिवेश में जैन तत्त्व चिन्तन की प्रासंगिकता को पुष्ट करने का प्रयास हुआ है । विभिन्न विचारकों ने जैन धर्म-दर्शन की सैद्धान्तिक मान्यताओं के सन्दर्भ में आज की मानव व्यवस्था से सम्बन्धित कतिपय ज्वलंत समस्याओं के समाधान भी प्रस्तुत किए हैं । कतिपय लेखकों ने आधुनिक विज्ञानसम्मत मान्यताओं के अनुरूप जैन सिद्धान्तों की विज्ञानपरकता को स्पष्ट करने की चेष्टा की है। पुनर्जन्म, कर्म सिद्धान्त, अपरिग्रह अहिंसा, अनेकान्तवाद, आदि किसी एक पक्ष को लेकर विद्वानों ने आधुनिक ज्ञानविज्ञान के साथ उसके तुलनात्मक अध्ययन की समीक्षा प्रस्तुत की है या फिर इन सिद्धान्तों के समाज-वैज्ञानिक औचित्य को सिद्ध करने का
१. The Hindustan Times, Dec. 31, 1982, पृ०३ 8. "A social religion that merely teaches service as an outward form is not enugh. Social religion must
above all, cultivate the inner attitudes and motives which issue in service. A genuinely social religion must teach emotional attitudes which naturally, spontaneously issue in social service. It must touch the heart of man. It must kindle the sympathetic emotions. Service must be motivated by love to have the highest social value. Religion must become a great device to accumulate, diffuse and transmit altruism in society. It must inculcate the love of man as man. It must develop a sense of human brotherhood throughout
humanity." C. A. Ellwood, 'The Reconstruction of Religion', पृ०१६ ३. महाभारत, कर्णपर्व, ६६/५८ ४. वही, ६९/५७ ५. महाभारत, शान्तिपर्व, ३२६/१३ ६. The Hindustan Times, 3, Jan, 1983, पृ०३
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आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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