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________________ आठवीं शताब्दी ई०में वरांगचरित-कार ने इन सभी देव-सम्बन्धी वादों का खण्डन किया है। जटासिंह नन्दी ने वैदिक देवताओं तथा यज्ञानुष्ठानों के औचित्य को भी नकारा है। इनके खण्डन का मुख्य तर्क यह रहा है कि कर्म-सिद्धान्त की मान्यता को उपर्युक्त वाद असिद्ध ठहरा देते हैं। एक दुष्ट व्यक्ति तथा एक विद्वान् व्यक्ति जब एक ही देवता की आराधना से उसकी कृपा का लाभ उठाता है तो निश्चित रूप से उस देवता का महत्त्व भी कम होता है। अनेक दृष्टान्तों द्वारा जटासिंह ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि सभी देवता सामान्य मनुष्य की भांति अनेक प्रकार की त्रुटियों को लिये हुए हैं। इसी प्रकार ज्योतिष्क ग्रहों एवं नक्षत्रों के मानव-जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को भी जटासिंह उपेक्षा-भाव से देखते हैं। उनके अनुसार बड़े से बड़े ग्रह तथा नक्षत्र स्वयं ही अपनी रक्षा नहीं कर सकते तो भला दूसरों का वे कितना उपकार कर सकेंगे?५ १०. भूतवाद—चार्वाक-अनुयायी भूतवादी कहलाते हैं। इनके अनुसार जीव अथवा आत्मा नामक कोई सत्ता नहीं है जो परलोक जा सके । शरीर के अतिरिक्त आत्मा जैसी वस्तु को प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी नहीं जाना जा सकता । गुड़, अन्न, जल आदि के संयोग से जैसे कोई उन्मादिका शक्ति स्वयमेव उत्पन्न हो जाती है वैसे ही भूतचतुष्टय-पृथ्वी, अग्नि, जल और वायु के संयोग से देह-निर्माणात्मिका शक्ति स्वतः ही उत्पन्न होती है। इस संसार के भोगों को छोड़कर जो पारलौकिक सुखों की ओर आकृष्ट होता है, वह हस्तगत फल को छोड़कर स्वप्नदृष्ट फल की स्पृहा कर रहा होता है। पाप-कर्मों तथा पुण्य-कर्मों का भी कोई औचित्य नहीं।' भूतवादी पूछता है कि जिस पत्थर की लोग कपूर-धूप आदि से पूजा करते हैं, तो क्या उस पत्थर ने पहले कोई पुण्य किया था ?६ वैसे ही एक दूसरे पत्थर पर लोग मूत्रादि करते हैं, तो क्या उसने पहले कोई पाप किया था ? अपनी इस प्रकार की तत्त्वमीमांसा से भूतवादी सांसारिक भोग-विलासों को ही मानवजीवन का लक्ष्य बताता है।" आत्मा का निषेध करने वाले भूतवादियों की धारणाओं पर आक्षेप करते हुए कहा गया है कि ज्ञान-लक्षण-युक्त जीव शुभाशुभ कर्मों के कारण सुख एवं दुःख को भोगने के लिए संसार में जन्म लेता है। जीव के पुनर्जन्म नहीं होने की मान्यता का खण्डन करते हुए कहा गया है कि नवजात शिशु पूर्वजन्म के संस्कारों से ही माता के स्तन-पान की ओर प्रवृत्त होता है। भूत-चतुष्टय से जीवशक्ति की उत्पत्ति होने को असंगत ठहराते हुए अमरचन्द्र सूरि का कहना है कि खाना पकाते समय बर्तन में अग्नि, जल, वायु तथा पृथ्वी-इन चारों तत्त्वों का संयोग तो रहता ही है, फिर क्या कभी इस बर्तन में जीव की उत्पत्ति हुई ? १४ संसार में रूप-वैचित्र्य तथा गुण-वैचित्र्य तथा सुखों और दुःखों की व्यक्तिपरक विभिन्नता यह सिद्ध करती है कि पूर्व-संचित शुभाशुभ कर्मों का मनुष्य पर प्रभाव पड़ता ही है।५ ११. मायावाद-पद्मानन्द महाकाव्य में निर्दिष्ट प्रस्तुत मायावाद शंकराचार्य के मायावाद से सर्वथा भिन्न है। मायावादी की यह मुख्य स्थापना है कि संसार में कुछ भी तात्त्विक नहीं है। दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् माया से आच्छादित है तथा स्वप्न एवं इन्द्रजाल की भांति १. वरांगचरित, २४/२२-३५ २. वरांगचरित, २४/२४-२६ ३. "पललोदन लाजपिष्ठपिण्डं परदत्तं प्रतिभुज्यते च येन । स परानगतिं कथं बिभर्ति धनतष्णां त्यज देवतस्तु तस्मात् ॥" वरांगचरित, २४/२७, २४/२३-२४ ४. "रविचन्द्रमसो: ग्रहपीडां परपोषत्वमथेन्द्रमन्त्रिणश्च । विदुषां च दरिद्रतां समीक्ष्य मतिमान्कोऽभिलषेद् ग्रहप्रवादम् ॥" वरांगचरित, २४/३६ ५. वरांगचरित, २४/३२-३३ ६. "संयोगवद्भ्यो गुडपिष्टधातकीतोयादिकेभ्यो मदशक्तिवद् ध्रुवम् ।" पमा०, ३/१२३ ७. "विहाय भोगानिहलोकसंगतान, क्रियेत यत्नः परलोककांक्षया । प्रत्यक्षपाणिस्थफलोज्झनादियं स्वप्नान संभाव्यफलस्पहा हहा ॥" पद्मा०, ३/१२१ ८. "धर्मोऽप्यधर्मोऽपि न सौख्यदु:खयोहॅतू विना जीवमिमो खपुष्पवत् ॥" पद्मा०, ३/१२४ ६. "कपूरकृष्णागुरुधूपधूपन: सम्पूज्यते पुण्यमकारि तेन किम् ।" पद्मा०, ३/१२५ १०. "ग्रारुणः परस्योपरि मानवव्रजय॑स्य क्रमौ मूत्रपुरीशसूत्रणा। यद् रच्यते चूर्णकृते च खण्ड्यते सन्दह्यते पापमकारि तेन किम् ॥" पद्मा०, ३/१२६ ११. "ताभिः सुखं खेलतु निर्भयं विभुमरालरोमावलितूलिकांगकः ।।" पा०, ३/१२६ "भोज्यानि भोज्यान्यमृतोपमानि च पेयानि पेयानि यथारुचि प्रभो !" पद्मा०, ३/१३० १२. पद्मा०, ३/१३७-३६ १३. "तज्जातमात्रः कथमर्भको भृशं स्तने जनन्या वदनं निवेशयेत् ?" पद्मा०, ३/१४४ १४. पद्मा०, ३/१४६-५१ १५. पद्या०, ३/१५३-५५ जैन दर्शन मीमांसा १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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