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________________ लगाते थे तथा जाति-प्रथा के विरुद्ध थे।' चार्वाकों का एक वर्ग 'आकाश' को पांचवां तत्त्व स्वीकार करता था। शराब पीना, मांस खाना, तथा अगम्या स्त्री से भी व्यभिचार करने में ये नहीं चूकते थे। चार्वाक मतानुयायियों की तत्कालीन गतिविधियों का उल्लेख करते हुए गुणरत्न ने यह भी सूचित किया है कि ये लोग वर्ष में एक बार सामूहिक रूप से एकत्र होकर जिस पुरुष का नाम जिस स्त्री के साथ निकल आये उसी क्रम में स्वच्छन्द रूप से रमण करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि सामन्तवादी भोग-विलास एवं ऐश्वर्य-सुख का उपभोग करने वाली मनोवृत्ति समाज में एक प्रभावशाली स्थान बना चुकी थी। जैन संस्कृत महाकाव्यों में इसी मनोवृत्ति को लोकायत जीवन-दर्शन के रूप में चित्रित किया गया है । लगभग सभी जैन महाकाव्यों में इस मनोवृत्ति का किसी न किसी रूप से अंकन हुआ है । चार्वाक दर्शन के रूप में जो मान्यताएं प्राचीन परम्परा से प्राप्त थीं, उनके ही विकसित रूप में जैन महाकाव्यों में प्रतिपादित मायावादी एवं तत्त्वोपप्लववादी लोकायत दर्शनों का सृजन अभी हो रहा था। इन साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर आज इस मान्यता पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता आ पड़ी है जिसके अनुसार प्राय: यह स्वीकार कर लिया जाता है कि चार्वाक-आदि नास्तिक दर्शन कालान्तर में दार्शनिक सम्प्रदाय के रूप में लुप्त हो चुके थे तथा आज केवल उनका ऐतिहासिक महत्त्व ही शेष रह चुका है। आस्तिक परम्परा वाले दर्शनों के सृष्टिवादपरक विकास की दृष्टि से भी जैन महाकाव्यों में कतिपय ऐतिहासिक तथ्य संग्रहीत हैं। कालवाद-स्वभाववाद आदि प्राचीन वादों के तात्कालिक स्वरूप का निरूपण इन महाकाव्यों में तो हुआ ही है, इसके अतिरिक्त "अज्ञानवाद', 'वैनयिकवाद की चर्चा भी गुणरत्न की टीका में उपलब्ध होती है। मध्यकाल में पौराणिक देव-विज्ञान के विकास-स्वरूप सृष्टिविषयक अनेक ऐसे वाद भी प्रचलित हो चुके थे जिनकी चर्चा षड्दर्शनसमुच्चय की टीका में उपलब्ध है । गुणरत्न की इस टीका (१५वीं शती ई०) में शिव, विष्णु, ब्रह्मा में से किसी एक को सृष्टि का कारण बताने वाले वादियों के अतिरिक्त कुछ त्रिमूर्ति से तो कुछ विष्णु की नाभि के कमल से उत्पन्न, ब्रह्मा तथा उनसे जनित अदिति माताओं द्वारा भी सृष्टि-निर्माण होने का प्रतिपादन करते थे। इनके अतिरिक्त आश्रमी सृष्टि को अहेतुक, पूरण नियतिजन्य, पराशर परिणामजन्य, तुरुष्क गोस्वामी नामक दिव्य पुरुषजन्य कहते थे। गुणरत्न ने कुल मिलाकर लगभग २७ वादों का उल्लेख किया है जो विभिन्न धर्मों तथा दर्शनों के द्वारा समथित थे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन संस्कृत महाकाव्यों में प्रतिपादित जैनेतर दार्शनिक वादों का भारतीय दर्शन के विकासपरक इतिहास की दृष्टि से भी विशेष महत्त्व रहा था। जैन महाकाव्यों में प्रतिपादित विभिन्न जैनेतर दार्शनिक वाद प्रस्तुत निबन्ध में जैन महाकाव्यों के युग में प्रचलित विविध जैनेतर वादों के दार्शनिक स्वरूप तथा महाकाव्यों के लेखक जैनाचार्यों द्वारा उनके सम्बन्ध में उठाई गई दार्शनिक आपत्तियों का एक संक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया है १. कालवाद-कालवादियों के अनुसार समस्त जगत् काल-कृत है । काल के नियमानुसार ही चम्पा, अशोक, आम आदि वनस्पतियों में फूल तथा फल आते हैं और ऋतु-विभाग से ही शीत-प्रपात, नक्षत्र-संचार, गर्भाधान आदि संभव होते हैं। जटाचार्य ने कालवादियों का यह कहकर खण्डन किया है कि वनस्पतियों आदि में असमय में भी फल-फल आदि लगते हैं तथा मनुष्यों आदि की अकाल-मृत्यु १. "कापालिका भस्मोद्ध लनपरा योगिनो ब्राह्मणाद्यन्त्यजाश्च केचन नास्तिका भवन्ति । ते च जीवपुण्यपापादिकं न मन्यन्ते । चतुर्भूतात्मक जगदाचक्षते ।" षड्दर्शनसमुच्चय, ७६ पर गुणरत्न-टीका (ज्ञानपीठ-संस्करण), पृ० ४५० २. "केचित्त चार्वाकैकदेशीया आकाशं पञ्चमं भूतमभिमन्यमानाः पञ्चभूतात्मक जगदिति निगदन्ति ।" वही, पृ० ४५० ३. "ते च मद्यमांसे भुञ्जते मानाद्यगम्यागमनमपि कुर्वते ।" वही, पृ० ४५१ ४. "वर्षे-वर्षे कस्मिन्नपि दिवसे सर्वे संभय ययानामनिर्गम स्त्रीभि रमन्ते ।" वही, पृ०४५१ ५. "तत: को जानाति जीव: सन्" इत्येको विकल्प:, न कश्चिदपि जानाति तद्ग्राहकप्रमाणाभावादिति भावः । ज्ञातेन वा कि तेन प्रयोजनम् ज्ञानस्याभिनिवेशहेतुतया परलोकप्रतिपन्थित्वात् ।", षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्न की टीका, पृ० २८-२६ ६. "तथा विनयेन चरन्तीति वैनयिकाः, वसिष्ठपराशरवाल्मीकिव्यासेलाएनसत्यदत्तप्रभूतयः" वही, प० २६ ७. तुलनीय-"अथवा लोकस्वरूपेऽप्यनेके वादिनोऽनेकधा विप्रवदन्ते । तद्यथा-केचिन्नारीश्वरजं जगन्निगदन्ति । परे सोमाग्निसंभवम् । वैशेषिका द्रव्यगणादिषहविकल्पम् । केचित्काश्यपकृतम् । परे दक्षप्रजापतीयम् । केचिद् ब्रह्मादित्रयकमूर्तिसृष्टम् । वैष्णवा विष्णुमयम् । पौराणिका विष्णुनाभि पद्मजब्रह्मजनितमातृजम् । ते एव केचिदवणं ब्रह्मणा वर्णादिभिः सृष्टम् । केचित्कालकृतम् । परे क्षित्याद्यष्टमूर्तीश्वरकृतम् । ब्रह्मणो मुखादिभ्यो ब्राह्मणादिजन्मकम् । सांख्याः प्रकृतिप्रभवम् । शाक्यविज्ञप्तिमानम् । अन्य एकजीवात्मकम् । केचिदनेकजीवात्मकम् । परे पुरातनकर्मकृतम् । अन्ये स्वभावजम् । केचिदक्षरजातभूतोद्भूतम् । केचिदण्डप्रभवम् । आश्रमी त्वहेतुकम् । पूरणो नियतिजनितम् । पराशरः परिणामप्रभवम् । केचिद्यादृच्छिकम् । नेकवादिनोऽनेक स्वरूपम् । तुरुष्का गोस्वामिनामकदिव्यपुरुषप्रभवम् । इत्यादयोऽनेके वादिनो विद्यन्ते ।" षड्दर्शनसमुच्चय, १ पर गुणरत्न की टीका, पृ० ३०-३१ ८. “कालवादिनश्च नाम ते मन्तव्या ये कालकृतमेव जगत्सर्वं मन्यन्ते । तथा च ते प्राहुः-न कालमन्तरेण चम्पकाशोकसहकारादिवनस्पतिकुसुमोद्गमफलबन्धादयो हिमकणानुषक्तशीतप्रपातनक्षत्रचारगर्भाधानवर्षादयो...घटन्ते।" वही, पृ० १५-१६ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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