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________________ नया मोड़ ले लिया था। रविषेण-कृत पद्मचरित (७वीं शती ई०) तथा उसके बाद निर्मित होने वाले आदिपुराण आदि ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि जैनाचार्य जैन धर्म को एक ऐसे उदार एवं लोकप्रिय धर्म का रूप देना चाहते थे जिससे वैदिक संस्कृति के मूल पर आधारित हिन्दू धर्म के साथ सौहार्द उत्पन्न किया जा सके और जैन धर्म के मौलिक तत्त्वों पर भी कोई आंच न आ सके। इस ओर सर्वप्रथम कार्य यह हुआ कि प्राकृत की ओर से ध्यान हटाकर संस्कृत भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम चुना गया। रविषेण के पद्मचरित एवं उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र को छोड़कर इससे पूर्व का लगभग समग्र साहित्य प्राकृत में ही लिखा गया था, परन्तु आलोच्य युग में अधिकांश धार्मिक, दार्शनिक तथा साहित्यिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने ब्राह्मण संस्कृति की समाज-व्यवस्था, धार्मिक व्यवस्था आदि से सम्बद्ध अनेक मान्यताओं, रीति-रिवाजों आदि को ग्रहण करने में कोई अनौचित्य नहीं देखा। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि वैदिक धर्म का परिवर्तित रूप इस युग में जिस भागवत धर्म के रूप में प्रतिष्ठित हुआ, उसकी सर्वाधिक विशेषता यह रही थी कि प्राचीन समय में सम्पन्न होने वाले बलि-प्रधान यज्ञों के स्थान पर अब फल-पुष्प-तोय की विधा से पूजा-पद्धति का प्रचलन बढ़ गया । निश्चित रूप से जैन धर्म की अहिंसामूलक प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही एक सहज और पवित्र पूजा-पद्धति हिन्दू धर्म में भी प्रचलित हुई । ब्राह्मण संस्कृति तथा जैन संस्कृति के इस पारस्परिक आदान-प्रदान की प्रवृत्ति के कारण दार्शनिक जगत् में होने वाली कटुता में भी पर्याप्त कमी आई। द्विसन्धान महाकाव्य के लेखक धनंजय ने जैन दर्शन की द्रव्य-परिभाषा के औचित्य की पुष्टि त्रिपुरुष-ब्रह्मा-विष्णु-महेश-के सन्दर्भ में की है।' आठवीं शती ई० के जटासिंह नन्दी ने वैदिक यज्ञानुष्ठानों, पुरोहितवाद, ईश्वरवाद आदि सृष्टि-विषयक अनेक मतों की आलोचना करते हुए यह प्रतिपादित किया है कि पुरुष, ईश्वर, काल, स्वभाव, दैव, ग्रह, नियोग, नियति आदि से संसार की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय नहीं होती। उक्त सभी मत आंशिक दृष्टिकोण को लिये हुए हैं। उनमें अनेकान्तवाद की योजना से ही सार्थकता बैठाई जा सकती है। जैन दर्शन के विकास की दृष्टि से संस्कृत जैन महाकाव्यों का युग 'प्रमाण व्यवस्था' का युग रहा था । आगम प्रधान दर्शन को तथ्य-संग्राहक एवं तर्कानुप्राणित शैली में उपस्थापित करने का काम इसी युग में हुआ। हरिभद्र सूरि द्वारा षड्दर्शन समुच्चय की रचना कर दिए जाने के बाद जैन दार्शनिकों के समक्ष भारतीय दर्शन का जैनानुसारी संस्करण भी तैयार हो चुका था। जैन संस्कृत महाकाव्यों के लेखक भी दार्शनिक क्षेत्र में उतर आये तथा युग की परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने वाद-प्रतिवाद की परम्परा में अपना भी योगदान दिया। जैन महाकाव्यों में कथानक-योजना के अन्तर्गत ही कुछ ऐसे विशेष सर्ग केवल दार्शनिक विवेचन के लिए ही लिखे गए हैं, जिनमें प्राय: किसी जैन मुनि के द्वारा उपदेश देते हुए अथवा राजा की मंत्रिपरिषद् में विभिन्न राजपार्षदों के माध्यम से जैनेतर दार्शनिक वादों की चर्चा उपस्थित की गई है। वरांगचरित' (आठवीं शती ई०), चन्द्रप्रभचरित (१०वीं शती ई०) तथा पद्मानन्द महाकाव्य (१३वीं शती ई०)आदि महाकाव्य इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं कि इनमें आई दार्शनिक चर्चा अत्यन्त विस्तृत एवं सुव्यवस्थित है। वरांगचरितकार ने वैदिक धर्म-दर्शन एवं सांख्य मतों की आलोचना में अधिक रुचि ली है, जबकि चन्द्रप्रभचरित में बौद्ध एवं चार्वाक दर्शनों के खण्डन को विशेष महत्त्व दिया गया है। पद्मानन्द-महाकाव्य भी बौद्धों तथा तत्कालीन सभी लोकायत मतों का विस्तृत विवेचन करता हुआ उनकी आलोचना करता है। जयन्तविजय, जैन कुमारसंभव आदि महाकाव्यों में भी अनेक आस्तिक दर्शनों की आलोचना की गई है। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि जिनसेन के आदिपुराण में भी अनेक दार्शनिक वादों के खण्डन का वर्णन मिलता है। जैन महाकाव्यों में उपलब्ध दार्शनिक मतों की सामाजिक लोकप्रियता की दृष्टि से यदि विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि दसवीं शती ई० तथा उसके उपरान्त लोकायत दर्शन समाज में लोकप्रिय होते जा रहे थे। जैन महाकाव्यों में दिए गए इन दर्शनों के प्रतिनिधि-तकों की सबलता उत्तरोत्तर वृद्धि पर थी। षड्दर्शनसम्मुचय के टीकाकार गुणरत्न सूरि ने लोकायत साधुओं का भी उल्लेख किया है। ये साधु कापालिकों की भांति शरीर में भस्म १. "स्तुवे साधु साधु स्थितिजननिरोधव्यतिकर सदा पश्यत्प्रास्त्रितयमिदमेव त्रिपुरुषम् ॥" द्विसन्धान, १२/५० तथा तुलनीय "त्रिपुरुषं हरिहरहिरण्यगर्भम्, कि कुर्वत् ? पश्यत् अवलोकमानम् , कम् ? स्थितिजननिरोधव्य तिकरम्, स्थितिः ध्रौव्यम्, जन उत्पादः, निरोधो व्ययः ।", नेमिचन्द्रकृत पदकौमुदी टीका । २. वरांगचरित (सर्ग २४-२५), माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९३८ ३. वहीं ४. जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९७१ ५. गायकवाड ओरियण्टल इन्स्टीच्यूट, बड़ौदा, १९३२ ६. काव्यमाला, प्रन्यांक ७५, निर्णयसागर, बम्बई, १९०२ ७. जैन पुस्तकोद्वार संस्था, सूरत, १९४६ ८. आदिपुराण (सर्ग ५, १८, २१), भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९६३-६५ जैन दर्शन मीमांसा १५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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