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________________ तत्त्व शब्द बना है। संस्कृत भाषा में तत् शब्द सर्वनाम है सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ के वाचक होते हैं। तत् शब्द से भाव अर्थ में त्व प्रत्यय लगकर तत्त्व शब्द बना है जिसका अर्थ होता है उसका भाव-तस्य भावः तत्त्वम्, अतः वस्तु के स्वरूप को और स्वरूपभूत वस्तु को तत्व कहा जाता है। लौकिक दृष्टि से तत्व शब्द का अर्थ है-वास्तविक स्थिति, यथार्थता, सारवस्तु, सारांश। दार्शनिक चिन्तकों ने परमार्थ, द्रव्यस्वभाव, पर-अपर, ध्येय, शुद्ध, परम के लिए भी तत्व शब्द का प्रयोग किया है। वेदों में परमात्मा तथा ब्रह्म के लिए एवं सांख्यमत में जगत् के मूल कारण के लिए तत्व शब्द आता है। __ जीवन में तत्व का महत्वपूर्ण स्थान है। जीवन और तत्व-ये दोनों एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं । तत्व से जीवन पृथक् नहीं किया जा सकता है और तत्व के अभाव में जीवन गतिशील नहीं हो सकता। जीवन में से तत्व को पृथक् करने का अर्थ है-आत्मा के अस्तित्व से इन्कार करना। समस्त भारतीय-दर्शन तत्व के आधार पर खड़े हुए हैं । प्रत्येक दर्शन ने अपनी-अपनी परम्परा और अपनी कल्पना के अनुसार तत्व-मीमांसा और तत्व-विचार को प्रतिपादित किया है। भौतिकवादी चार्वाक दर्शन ने भी तत्व को स्वीकार किया है। वह पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि ये चार तत्व मानता है, आकाश को नहीं, क्योंकि आकाश का ज्ञान प्रत्यक्ष से न होकर अनुमान से सिद्ध होता है। वैशेषिक दर्शन ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव इन मूलभूत तत्वों (पदार्थों) को स्वीकार किया है। न्याय-दर्शन में प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान ---ये सोलह पदार्थ माने गए हैं। सांख्य-योग दर्शन में प्रकृति, महत्, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पांच तन्मात्रायें, मन, पंचमहाभूत और पुरुष ये पच्चीस तत्व माने हैं । मीमांसा दर्शन वेदविहित कर्म को सत् और तत्व मानता है। वेदान्त दर्शन एकमात्र ब्रह्म को सत् मानता है और शेष सभी को असत् मानता है । बौद्ध दर्शन ने दुःख, दुःख-समुदय, दुःख-निरोध और दुःख-निरोध के मार्ग का विश्लेषण किया है। जैन दर्शन इसे ही षड्द्रव्य और सप्ततत्व के रूप में या नवपदार्थ के रूप में स्वीकार करता है । द्रव्य, तत्व और पदार्थ--ये तीनों ही वस्तुस्वरूप की अभिव्यक्ति के साधन हैं । कुन्दकुन्द ने तत्व, अर्थ, पदार्थ और तत्वार्थ-इन शब्दों को एकार्थक माना है।' सत्, सत्व, तत्व, तत्वार्थ, अर्थ, पदार्थ और द्रव्य पर्यायवाची हैं। सत् और द्रव्य को तत्व कहा गया है। जो सत् है वह उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप है । जो तत्व है, वह सत् और जो सत् है, वह द्रव्य है। यत्क्षणिकं तत्सत्-जो क्षणिक है, वही सत् या सत्य है, ऐसी बौद्ध की मान्यता है । वेदान्त ब्रह्म को सत् मानता है, इसके अलावा सभी मिथ्या है। परन्तु यह दृष्टि जैन दर्शन की नहीं। वह प्रत्येक द्रव्य को द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नय की दृष्टि से देखता है । द्रव्य का कभी नाश नहीं होता, पर पर्याय-दृष्टि से उत्पादव्ययरूप परिणमन होता रहता है। प्रत्येक वस्तु को समझाने के लिए इसी तरह की दृष्टि चाहिए । तत्व शब्द भाव-सामान्य का वाचक है। तत् यह सर्वनाम है जो भावसमान्य वाची है अतः तत्व शब्द का अर्थ है-जो पदार्थ जिस रूप में है, उसका उसी रूप में होना। जीवादीनां पदार्थानां याथात्म्यं तत्वमिष्यते' अर्थात् जीवादि पदार्थों का यथार्थस्वरूप ही तत्व कहलाता है । वह तत्व ही सम्यग्ज्ञान का अंग अर्थात् कारण है। तत्वों की संख्या-तत्व सामान्य की दृष्टि से एक है यह जीव और अजीव के भेद से दो प्रकार का है। जीव के भी संसारी और मुक्त ये दो भेद माने गये हैं। संसारी जीव के दो भेद हैं-भव्य और अभव्य । इस प्रकार आचार्य जिनसेन ने तत्व के चार भेद बताये हैं जो अपने आप में एक नवीन शैली को दर्शाते हैं-१. मुक्तजीव, २. भव्यजीव, ३. अभव्यजीव तथा ४. अजीव । मूर्तिक और अमूर्तिक के रूप में अजीव के दो भेद हो जाने के कारण प्रकारान्तर से तत्व के निम्न भेद' कहे जा सकते हैं१. संसारी, २. मुक्त, ३. मूर्तिक और ४. अमूर्तिक । इन तत्वों का विवेचन करते हुए आचार्य जिनसेन ने मोक्ष-मार्ग में प्रवृत्त होने वाले मुनियों के रहन-सहन, आचार-विचार एवं उनके गमनागमन के नियमों का भी वर्णन किया है। इन मूल दो तत्वों का ही सात तत्वों के रूप में विस्तार होता है-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इसका मूल कारण यह है कि जीव ही अजीव की क्रियाओं का कर्ता है। जड़ क्रियाओं से कर्मों का आवागमन-आस्रव-बन्ध होता रहता है। जिस तरह नाव में छिद्र होने से पानी आता रहता और एकत्रित होता रहता है, उसी तरह आस्रव-बंध कर्म भी आते और एकत्रित होते रहते हैं। इनके हटाने का कोई मार्ग भी तो होना चाहिए ? संवर द्वारा कर्मों (नाव के छिद्र को बंद कर देने से पानी) का आना रुक जाता है। निर्जरा १.पंचास्तिकाय, गा० ११२-११६ २. तत्वार्थराजवार्तिक, १२ ३. आदिपुराण, २४८६ ४. आदिपुराण, २४/८८-२०८ १३४ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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