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________________ रहता। अतः इन्द्रिय-प्रत्यक्ष की भांति अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से भी उस शब्द-ब्रह्म की सत्ता सिद्ध नहीं होती। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से भी शब्द-ब्रह्म का सद्भाव सिद्ध नहीं होता-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से भी शब्दब्रह्म का सद्भाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि आ० विद्यानन्द कहते है कि पहली बात यह है कि शब्दाद्वैतवादियों ने बौद्धों द्वारा मान्य क्षणिक और निरंश ज्ञान की सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से नहीं मानी । जब क्षणिक एवं निरंश ज्ञान की स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से सिद्धि नहीं हो सकती, तो शब्दब्रह्म की सिद्धि उससे कैसे हो सकती है ? दूसरी बात यह है कि मुक्तिरहित वचनमात्र से शब्दब्रह्म की सत्ता मान लेना भी युक्तियुक्त नहीं है । अन्यथा अश्व-विषाण आदि असत् पदार्थों का सद्भाव सिद्ध हो जायेगा। प्रभाचन्द्राचार्य ने भी स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा शब्दब्रह्म की प्रतीति का निराकरण करते हुए कहा है कि स्वप्न में भी आत्मज्योतिस्वभाव शब्दब्रह्म की प्रतीति स्वसंवेदन के द्वारा नहीं हो सकती। यदि स्वसंवेदन में उसकी प्रतीति होने लगे, तो बिना प्रयत्न किये समस्त प्राणियों को मोक्ष हो जायेगा। क्योंकि, शब्दाद्वैत-सिद्धान्त में यह माना गया है कि आत्मज्योतिस्वभाव शब्दब्रह्म का स्वसंवेदन होना मोक्ष है। अभयदेव सूरि और कमलशील ने भी स्वसंवेदन को विरुद्ध बताकर उसका निराकरण किया है। एक अन्य बात यह है कि घटादि शब्द और पदार्थ स्वसंविदित स्वभाव वाले नहीं हैं, इसके विपरीत सभी लोगों को अस्वसंविदित रूप ही प्रतीत होते हैं। तात्पर्य यह है कि घटपटादि शब्द और पदार्थ शब्दब्रह्म की पर्याय हैं और शब्दाद्वैतवादी शब्दब्रह्म को स्वसंविदितरूप मानते हैं। जैन तर्कशास्त्रियों का कथन यह है कि शब्दब्रह्म की भांति घटादि शब्द और पदार्थ स्वंसविदित रूप होने चाहिए, क्योंकि वे उसी शब्द-ब्रह्म के विवर्त हैं । ऐसी प्रतीति किसी को नहीं होती; सभी को घटादि पदार्थ अस्वसंविदित रूप ही प्रतीत होते हैं। इससे सिद्ध है कि शब्दब्रह्म भी स्वसंविदित रूप नहीं है और प्रत्यक्ष प्रमाण से इसकी प्रतीति किसी को नहीं होती। अनुमानप्रमाण भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है अनुमान प्रमाण भी शब्दब्रह्म का साधक नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई अनुमान नहीं है, जो शब्दब्रह्म की सिद्धि करता हो । दूसरी बात यह है कि शब्दाद्वैतवादियों को अनुमान प्रमाण मान्य नहीं हैं। आचार्य विद्यानन्द कहते हैं कि शब्दाद्वैतवादियों ने अनुमान के द्वारा अर्थों की प्रतीति को दुर्लभ माना है। उनका मत है कि जिस समय व्याप्ति का ग्रहण होता है, उसी समय सामान्य रूप से अनुमेय का ज्ञान हो जाता है । अनुमान काल में पुनः उसे सामान्यरूप से जानने पर सिद्ध-साधन दोष आता है । विशेष रूप से अनुमेय जानने के लिए हेतु का अनुगम गृहीत नहीं होता। अतः अनुमान से अर्थ-प्रतीति जब शब्दाद्वैत-सिद्धान्त में मान्य नहीं है, तो उससे शब्दब्रह्म की सिद्धि कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते। अब यदि शब्दाद्वैतवादियों का यह अभिमत हो कि अन्य सिद्धान्तों में मान्य अनुमान-प्रमाण से शब्दब्रह्म की सिद्धि हो जाती है। तो, इसके प्रत्युत्तर में आचार्य विद्यानन्द का कथन है कि परवादियों की अनुमान प्रक्रिया शब्दाद्वैतवादियों के लिए प्रामाणिक नहीं है। अभयदेव सूरि, प्रभाचन्द्र और तत्वसंग्रह के टीकाकारों ने विशद रूप से शब्दाद्वैतवादियों की इस युक्ति वा खण्डन करके सिद्ध १. (क) स्या० र०, १/७, पृ० १०० (ख) न्या० कु० च०, १/५, पृ०१४३ २. 'स्वतःसंवेदनासिद्धिः क्षणिकानंशवित्तिवत् । __ न परब्रह्मणो नापि सा युक्ता साधनादिना ॥', त० श्लो० वा०, १/३, सू० २०, श्लोक ६८, पृ० २४० ३. ""आत्मज्योति स्वभावस्यास्य स्वप्नेऽपि संवेदनाऽगोचरत्वात् तद्गोचरत्वे वा अनुपायसिद्ध एव अखिलप्राणीनां मोक्ष: स्यात्, तथाविधस्य हि शब्दब्रह्मण: स्वसंवेदनं यत् तदेव मोक्षो भवतामभिमत:।', प्रभाचन्द्र, न्या० कु० च०, १/५, पृ. १४३ ४. 'अय ज्ञानरूपवत् स्वसंवेदनस्याध्यक्षत एव शब्दब्रह्म सिद्धम् असदेतत् , स्वसंवेदनविरुद्धत्वात् तथाहि अन्यत्र गतचित्तोऽपि रूपं चक्षुषा वीक्षमाणोऽभिलापासंसृष्ट मेव नीलादिप्रत्ययमनुभवतीति'1', अभयदेवसूरि : सन्मतितर्कप्रकरणटीका, तृतीय विभाग, गा० ६, पृ० ३८४ तुलना करें, ''तथाहि ज्योतिस्तदेव शब्दात्मकत्वाच्चैतन्यरूपत्वाच्चेति ? तदेतत् स्वसंवेदनविरुद्धम् । तथाहि अन्यत्र गतमानसोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षमाणोऽनादिष्टाभिलापमेव नीलादिप्रत्ययमनुभवतीति ।', कमलशील : त० सं० टीका, पृ० १४७, पृ० १२ ५. 'न च घटादिशब्दोऽर्थो वा स्वसंविदितस्वभावः, यतस्तदन्वितत्वं स्वसंवेदनतः सिद्धयेत , अस्वसंविदितस्वभावतयवास्य प्रतिप्राणिप्रसिद्धत्वात् ।', न्या० कु० च०, १/५, पृ० १४४ ६. 'नाप्यनुमानेन, तस्य तत्सद्भावावेदकस्य कस्यचिदसम्भवात् ।', वादिदेव सूरि : स्या० र०, १/७, पृ० १०० ७. 'नानुमानात्ततीर्थानां प्रतीतेदुल भत्वतः । परप्रसिद्धिरप्यस्य प्रसिद्धा नाप्रामाणिका ॥', त० श्लो० वा०, १/३, सूत्र २०, श्लोक १७, पृ. २४० १२२ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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