SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 623
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणमीमांसा : एक अध्ययन एक विवेचन आत्मा का स्वरूप गुण चैतन्य है। आत्मा से भिन्न जड़ पदार्थों में यह लक्षण प्राप्त नहीं होता है। अतः यह चैतन्य गुण जड़ पदार्थों से आत्मा को भिन्न करने वाला होता है। ज्ञान और दर्शन की प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं।' चैतन्यलक्षण उपयोग रूप होता है । आत्मा के अनन्त गुणों में यह चैतन्यात्मक उपयोग ही ऐसा असाधारण गुण है जिससे आत्मा लक्षित होता है । " वस्तु में दो प्रकार के गुण होते हैं- सामान्य गुण और विशेष गुण ।' सामान्य गुण का ग्राही दर्शन और विशेष गुण का ग्राही ज्ञान है | दर्शन को निराकारोपयोग तथा ज्ञान को साकारोपयोग भी कहा जाता है। दर्शन का काल विषय और विषयी के सन्निपात के पहले है * जिसमें ज्ञेय का प्रतिभास नहीं होता है । दार्शनिक ग्रंथों में दर्शन का काल विषय और विषयी के सन्निपात के अनन्तर है । इस कारण से ही पदार्थ के सामान्यावलोकन के रूप से दर्शन की प्रसिद्धि हुई। बौद्धों के द्वारा मानित निर्विकल्प ज्ञान और नैयायिकादि सम्मत निर्विकल्प प्रत्यक्ष नहीं है । प्रमाण का लक्षण ज्ञान के द्वारा वस्तु की विशेष अवस्थाओं का ज्ञान होता है । जिस ज्ञान का प्रतिभासित पदार्थ ठीक उसी रूप में मिल जाय जिस रूप में कि उसका बोध हुआ है, वह ज्ञान प्रमाण कहलाता है । " ज्ञान की तरह दर्शन वस्तुस्पर्शी न होने के कारण प्रमाण की कोटि में नहीं रखा जाता है । वह सामान्य अंश का भी मात्र आलोकन ही करता है, निश्चय नहीं। जिस ज्ञान का प्रतिभासित पदार्थ जैसा का तैसा मिल जाता है, वह अविसंवादी ज्ञान सत्य है और प्रमाण है । ६ यद्यपि आगमिक क्षेत्र में जो ज्ञान मिथ्यादर्शन का सहचारी है वह मिथ्या है और जो ज्ञान सम्यग्दर्शन का सहभावी है वह सम्यक् २० कहलाता है, परन्तु दार्शनिक परम्परा साहित्य के अनुसार प्रतिभासित विषय का अव्यभिचारी होना ही प्रमाणता की कुंजी है ।" प्रमीयते येन तत्प्रमाणम् अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो, उसे प्रमाण कहते हैं । ऐसा भी कहा जा सकता है जो प्रमा का साधकतम करण हो, वह प्रमाण है। जानना या प्रमारूप क्रिया चेतन है, अतः उसमें साधकतम उसी का गुण ज्ञान ही हो सकता है । इन्द्रियसन्निकर्षादि स्वयं अचेतन हैं, अतएव अज्ञान रूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात् करण नहीं हो सकते । " अंधकार की निवृत्ति में दीपक की १. 'उपयोगलक्षणो जीव:', जंनसिद्धांतदीपिका, प्र० २ २. 'उद्दिष्टयासाधारणधर्मवचनम् - लक्षणम् प्रमाणमीमांसा, १/१ ३. प्रमाणमीमांसा, १/१ ४. विषयविषविसम्पातात् पूर्वावस्था इत्यर्थः, धवला टी०, १४६ ५. बृहद्रव्यसं० टीका, गा० ४३ ६. विषयविषयिसन्निपाते सति दर्शनं भवति, सर्वार्थसिद्धि, १/३५ ७. 'विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते' प्रमाणसमुच्चय, पृ० २४ ८. प्रमेयरत्नमाला, ६/१ ९. 'यत्राविसंवादस्तथा तव प्रमाणता', सिद्धिवि०, १/२० १०. नंदीसूत्र ११. प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणं प्रमायां साधकतमम् प्रमाणमीमांसा, १/१ १२. 'सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमनुपपन्नमर्थान्तरवत्', लघी० स्ववृत्ति, १/३ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International श्री श्रीचन्द चोरड़िया , For Private & Personal Use Only १०५ www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy