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________________ जब आत्मा रागद्वेषयुक्त होता हुआ शुभ और अशुभ में परिणमित होता है, तब कर्मरज ज्ञानावरणादि रूप से उसमें प्रवेश करती है।' इस विषय में आचार्य अमृतचन्द्र ने मेघजल का दृष्टान्त दिया है। जब नया मेघजल भूमिसंयोगरूप में परिणमित होता है तब अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता (छत्ता) और इन्द्रगोप (चातुर्मास में उत्पन्न लाल कीड़ा) आदि रूप में परिणमित होता है। इसी प्रकार जब यह आत्मा रागद्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभरूप परिणमित होता है तब अन्य योगद्वारों से प्रविष्ट होते हुए कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप में परिणमित होते हैं। प्रदेशयुक्त वह आत्मा यथाकाल मोह-राग-द्वेष के द्वारा कषायित होने से कर्मरज से लिप्त या बद्ध होता हुआ बन्ध कहा गया है।' उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द की दृष्टि में कर्म दो प्रकार का होता है-एक वह कर्म जो आत्मा में होता है, जिसे जैन दर्शन में भावकर्म कहा जाता है, दूसरा द्रव्यकर्म जो पौद्गलिक होता है, जिसकी संयुक्तता से आत्मा मलिन होती है। वैशेषिक मत में कर्म एक स्वतन्त्र पदार्थ है। जैन दर्शन में कर्म स्वतन्त्र पदार्थ न होकर आत्मा का अशुद्ध परिणाम अथवा पुद्गल का विशेष परिणमन है, जिसे क्रमशः द्रव्यकर्म और भावकर्म कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन में कर्म केवल मूर्तद्रव्यों में ही रहता है। इस दर्शन के अनुसार आत्मा व्यापक है, अतः इसमें कर्म नहीं होता। जैन दर्शन में भावकर्म आत्मा में होता है और द्रव्यकर्म भी आत्मा के प्रदेशों के साथ संसारी अवस्था में एक क्षेत्रावगाही रहता है, अतः वह आत्मा का कहा जाता है। वैशेषिक दर्शन में कर्म और क्रिया दोनों को एक ही माना गया है। इसीलिए वहां कर्म पांच प्रकार के बतलाए गए हैं-(१) उत्क्षेपण (२) अवक्षेपण (३) आकुंचन (४) प्रसारण और (५) गमन। जैन दर्शन में क्रिया चाहे वह स्वप्रत्ययक हो अथवा परप्रत्ययक हो, प्रत्येक द्रव्य में पाई जाती है, क्योंकि वहां प्रत्येक द्रव्य को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त माना गया है, जब कि कर्म या तो आत्मा का (वैभाविक)परिणाम होता है अथवा पौद्गलिक कर्म होता है, अन्य किसी प्रकार का कर्म नहीं होता है। वेदान्त दर्शन में यद्यपि निष्पन्द ब्रह्म में मायोपाधिक आद्यस्पंद या हलन-चलन कर्म माना गया है, किन्तु उस माया को वे मिथ्या मानते हैं, जैनधर्म उसे सर्वथा मिथ्या नहीं मानता है । वेदान्त ब्रह्म को स्थितिमय और सृष्टि को गत्यात्मक मानता है। जैनधर्म सब पदार्थों को स्थितिगतिमय मानता है। सांख्य दर्शन में सृष्टि-निर्माण के सम्बन्ध में प्रकृति की मुख्यता है, क्योंकि पुरुष कर्ता नहीं है, वह निष्क्रिय है, कर्ता स्वयं प्रकृति है। इसलिए परिणमन भी प्रकृति में होता है। कारण यह है कि पुरुष निष्क्रिय है और प्रकृति सक्रिय । जैन दर्शन में संसार का कारण आत्मा और कर्मपुद्गल दोनों हैं ; क्योंकि आत्मा रागद्वेष करता है, उससे कर्मपुद्गल आकृष्ट होते हैं, कर्म पुद्गल के निमित्त से जीव रागद्वेष करता है, इस प्रकार का चक्र निरन्तर चलता रहता है । पुरुष अर्थात् आत्मा कथंचित् कर्ता है और कर्मपुद्गल भी कथंचित् कर्ता है। पुरुष या आत्मा सर्वथा निष्क्रिय नहीं है। जड़ और चेतन दोनों में परिणमन होता है। सांख्य दर्शन में पुरुष को बन्ध नहीं होता है, जैन दर्शन में संसारी अवस्था में पुरुष का बन्ध होता है; क्योंकि जिसका बन्ध होता है, उसी का मोक्ष होना युक्तियुक्त ठहरता है। सांख्य दर्शन में शुभ-अशुभ, सुख-दुःख प्रकृति के धर्म हैं। जैन दर्शन के अनुसार ये संसारी अवस्था में आत्मा को होते हैं और इनके होने में कथंचित् प्रकृति या कर्म निमित्त है। सांख्य दर्शन में पुरुष कर्त्ता नहीं भोक्ता है। जैन दर्शन में पुरुष कर्ता भी है और भोक्ता भी है। जो कर्ता होता है, वही भोक्ता होता है, भोक्ता सर्वथा भिन्न नहीं होता है। सांख्य आत्मा को ज्ञानमय न मानकर ज्ञान को जड़ प्रकृति का धर्म कहता है। जैन दर्शन ज्ञान को आत्मा का धर्म कहता है। बन्ध के निरूपक दो नय-बन्ध के निरूपक दो नय हैं-(१) निश्चय नय (२) व्यवहार नय । राग परिणाम ही आत्मा का कर्म है, वही पूण्य पाप रूप द्वैत है, आत्मा राग परिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करने वाला है और उसी का त्याग करने वाला है-यह शुद्ध द्रव्य का निरूपणस्वरूप निश्चय नय है और जो पुद्गल-परिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पाप रूप द्वैत है, आत्मा पुदगल-परिणाम का कर्ता है, उसका ग्रहण करने वाला और छोड़ने वाला है, ऐसा अशुद्ध द्रव्य का निरूपणस्वरूप व्यवहार नय है। द्रव्य की प्रतीति शुद्ध रूप और अशुद्ध रूप दोनों प्रकार से की जाती है। निश्चयनय यहां साधकतम है, अतः उसका ग्रहण किया गया है। साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक होने से निश्चयनय ही साधकतम है, अशुद्धत्व का द्योतक व्यवहारनय साधकतम नहीं है। जीव की शुभ, अशुभ और शुद्ध अवस्थायें-जीव परिणाम स्वभावी होने से जब शुभ या अशुभ भावरूप परिणमन करता है, तब शुभ या अशुभ स्वयं होता है और जब शुद्ध रूप परिणमन करता है तब शुद्ध होता है। धर्म से परिणमित स्वरूप वाला यदि शुद्ध उपयोग में युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग वाला हो तो स्वर्ग के सुख को प्राप्त करता है। अशुभ उदय से आत्मा कूमनुष्य, १. प्रवचनसार, १८७ २. तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या, १८७ ३. प्रवचनसार, १८८ ४. प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका व्यापा, १८१ ५. 'जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो। सुद्धेण तदा सुद्धो हवदि हि परिणामसम्भावो ।', प्रवचनसार, ६ ६. वही, ११ जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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