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जैन दर्शन में बन्ध और मोक्ष
प्रोफेसर अशोक कुमार
जैन दर्शन मुख्यतः एक आचारबादी दर्शन है। इसकी मुख्य समस्या बन्धन और मोक्ष की समस्या है। अस्तित्ववादियों की तरह यह भी दुःख-बोध से प्रारम्भ होता है। इसके अनुसार वर्तमान जीवन बन्धन का जीवन है और इसका चिह्न है-दुःख की अनुभूति । भगवान् महावीर के अनुसार, 'जन्म दुःख है, जरा दुःख है, रोग दुःख है, मृत्यु दुःख है', सारा संसार ही दुःखमय है जिसमें व्यक्ति फंसा है।
जम्मं दुक्खं, जरा दुक्खं, रोगाणि, मरणाणिय।
अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो॥' महावीर मानते हैं कि अपने स्वभाव में नहीं होना ही बन्धन है, और स्वभाव में लौट आना ही मुक्ति है। दुःख का अनुभव हमारे विभाव में होने का परिचायक है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वभावतः 'अनन्त-चतुष्टय' युक्त है। उसमें अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द है । लेकिन हमारी वर्तमान अवस्था ऐसी नहीं है। वर्तमान अवस्था में हम दुःखी, निर्बल, अज्ञानी और मूच्छित हैं। इससे स्पष्ट है कि हमारी आत्मा अपनी स्वाभाविक शक्तियों की अभिव्यक्ति में सक्षम नहीं है। उसका कारण यह है कि आत्मा का पुद्गल के साथ संयोग हो गया है। उसकी शक्तियों को पुद्गल ने आवृत्त कर रक्खा है, जैसे- सूर्य का प्रकाश बादलों से ढंक जाता है । अतः आत्मा के साथ पुदगल का संयोग ही बन्धन है। इस संयोग के कारण आत्मा अपना स्वरूप खो देती है और पुद्गल को ही अपना मान बैठती है। फलस्वरूप पुदगल के गुण-धर्म को वह अपना गुण-धर्म समझ लेती है और इसी कारण बन्धन उत्पन्न होता है। पुद्गल वह है जो प्रक्रिया में है (पूरयन्ति गलन्ति च) और जहां प्रक्रिया है वहां वेचैनी और दुःख है। आत्मा प्रक्रियातीत है । उस तल पर अनन्त शान्ति और आनन्द है, लेकिन पुद्गल के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण उसकी स्वाभाविक शक्तियां ढंक जाती हैं, यद्यपि नष्ट नहीं होतीं। अतएव आत्मा में मुक्ति या स्वभाव लाभ की संभावना सदा बनी रहती है।
प्रश्न है कि बन्धन क्यों होता है? इसके उत्तर में जैन दर्शन का मत है कि अज्ञान की स्थिति में ममत्व के कारण कर्म करने से पदगल का संग्रह होता है जो आत्मा से संयोजित होकर उसे आवृत्त कर लेता है। अज्ञान या मूच्छी की स्थिति में स्वरूप-बोध नष्ट हो जाता है और 'पर' की कामना एवं 'पर' के साथ तादात्म्य होने लगता है। व्यक्ति जैसी कामना करता है, उसी के अनुरूप पुद्गलों का आस्रव उसकी ओर होने लगता है जो अन्ततोगत्वा आत्मा को बिल्कुल ढंक लेता है। इस कारण भगवान् महावीर ने कहा है कि 'मूर्छा ही परिग्रह है।' मळ परिग्रहः वही बन्धन का कारण है। अज्ञान की स्थिति में किया गया कर्म जीव में कषाय की उत्पत्ति करता है । कषाय आत्मा के कल्मष और आत्मा की वे प्रवत्तियां हैं जो पुद्गल-कणों को अपनी ओर आकृष्ट करती हैं। क्रोध, लोभ, मान और माया ये चार कषाय हैं । जो आत्मा को बन्धन में डालती हैं । जैसे-तेल से भीगा कपड़ा धूलि कणों को अपनी ओर आकृष्ट करता है, उसी प्रकार कषाययुक्त आत्मा पुदगल कणों को अपनी ओर आकृष्ट करती है, और इस प्रकार पुद्गल का संयोग आत्मा के साथ हो जाता है।
जैन दर्शन के अनुसार बन्धन के दो स्तर हैं--(१) भावबन्ध और (२) द्रव्यबन्ध । बन्धन का आरम्भ पहले भाव के स्तर पर होता है और तब वास्तव में आत्मा और देह का संयोग हो जाता है । पहले आत्मा में अज्ञान या मूर्छा के कारण किसी वस्तु के लिए आसक्ति जागती है या भोग-लालसा का उदय होता है, जिससे जीव का आकर्षण भौतिक पदार्थ की ओर होने लगता है और तब पूदगल कणों का आस्रव जीव की कामना के अनुरूप उसकी ओर होने लगता है, जिससे विभिन्न प्रकार के अंगोपांगों का विकास होता है। व्यक्ति जीवन में जो कुछ
१. उत्तराध्ययन सूत्र, १६/१६ २. तत्वार्थ सूत्र, ७/१७
जैन दर्शन मीमांसा
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