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________________ व्यष्टि से समष्टि और समष्टि से व्यष्टि भिन्न नहीं है। तृणमात्र में भी हेरफेर करने का विकल्प विकल्प है। तृण में वह परमार्थतः कुछ कर सकता है या नहीं यह बात तो अनुभव ही बता सकता है, परन्तु इतना तो स्पष्ट है ही कि करने-धरने के विकल्प से उसकी जो पारमार्थिक हानि होने वाली है उससे वह किसी प्रकार भी बच नहीं सकता। इस प्रकार तत्वज्ञता का अवसान अकर्तृत्व में अकर्तृत्व का ज्ञातादृष्टा-भाव में, ज्ञाता-दृष्टा का वीतरागता में और वीतरागता का अवसान समता में होता है। यही समीचीन आचरण है जिसे प्राप्त कर लेने पर अन्य कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता, जीवन की महायात्रा समाप्त हो जाती है। उस अवस्था में न कहीं व्यवहार का पदचिह्न दिखाई देता है और न निश्चय का, न साधन का और न साध्य का । यही परमानन्द है, यही परमानन्द है। कल्प वस्तु के द्रव्य की अपेक्षा विभाग वस्तु के वस्तु की अपेक्षा विभाग १. सत्ता सत् २. जीव, अजीव जीवभाव-अजीवभाव । विधि-निषेध । मूर्त-अमूर्त । अस्ति काय-अनस्तिकाय ३. भव्य, अभव्य, अनुभय द्रव्य, गुण, पर्याय ४. (जीव) संसारी, असंसारी; (अजीव) पुद्गल, | बद्ध, मुक्त, बन्धकारण, मोक्षकारण अपुद्गल ५. (जीव) भव्य, अभव्य, अनुभय; (अजीव) मूर्त, औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक अमूर्त ६. जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश द्रव्यवत् ७. जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध संवर, निर्जरा, मोक्ष | बद्ध, मुक्त, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल, आकाश ८. जीवास्रव, अजीवास्रव, जीवसंवर, अजीवसंवर, भव्य संसारी, अभव्य मंसारी, मुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, जीवनिर्जरा, अजीवनिर्जरा, जीवमोक्ष, अजीवमोक्ष ६. जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, | द्रव्यवत् बन्ध, मोक्ष | १०. (जीव) एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, | द्रव्यवत् पंचेन्द्रिय; (अजीब) पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ११. (जीव) पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, त्रस; द्रव्यवत् (अजीव) पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल १२. (जीव) पृथिवी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, संज्ञी, असंज्ञी; (अजीव) पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल १३. (जीव) भव्य, अभव्य, अनुभय; (पुद्गल) बादर बादर, बादर, बादरसूक्ष्म सूक्ष्मबादर, सूक्ष्म-सूक्ष्म; (अमूर्त अजीव) धर्म, अधर्म, आकाश. काल (श्री जिनेन्द्रवर्णी कृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३ से उद्धृत) जैन दर्शन मीमांसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012045
Book TitleDeshbhushanji Aacharya Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR C Gupta
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year1987
Total Pages1766
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size56 MB
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